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समता ही सामायिक
अगर बोलना जारी रहे, तो पहाड़ पर बैठा भी अकेला नहीं है। अंधेरी कोठरियों में डाल देते हैं। उनको पड़े रहने देते हैं अकेले वहां भी किसी से, कल्पना के मित्र से, शत्रु से बात करता | में। टेप लगे रहते हैं उनके आसपास, वे कुछ भी बोलें तो वह रहेगा। वहां भी समाज बना रहेगा। कल्पना का ही सही, लेकिन | टेप में संग्रहीत हो जाता है। समाज रहेगा। आदमी अकेला न होगा। बीच बाजार में आदमी तीन-चार सप्ताह के बाद जो वह उगलवाना चाहते थे, वह मौन हो जाए, अचानक उसी क्षण मौन होते ही समाज खो गया। खुद ही उगलने लगते हैं। एक सीमा है! भीड़ के कारण समाज नहीं है, भाषा के कारण समाज है। तुमने कभी खयाल किया? कोई तुमसे गुप्त बात कह दे, कहे
तो महावीर ने कहा, जंगल में भागने से क्या सार होगा! अपने किसी को कहना मत, बस तुम मुश्किल में पड़े। उसका यह में भाग जाओ, छोड़ दो दूसरे तक जाना—भाषा से ही हम दूसरे कहना कि किसी को कहना मत, कहने के लिए बड़ा उकसावा तक जाते हैं-तोड़ दो भाषा, अपने में लीन हो जाओ। महावीर | बन जाएगा। बड़ी उत्तेजना पैदा हो जाएगी। आदमी लेता है, बारह वर्ष मौन रहे। उन बारह वर्षों में उन्होंने क्या किया? | देता है, भाषा में। भीतर छिपाकर रखना बहुत कठिन है।
मांति अपने को समाज से मुक्त किया। वे परम | मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया। और विद्रोही थे। समाज से सब भांति उन्होंने सब तरह के संबंध, सब उस युवक ने कहा कि मैंने सुना है कि आपको जीवन का परम धागे तोड़ डाले। उन्होंने सब तरह से अपने को समाज से अलग रहस्य मिल गया, आपके गुरु ने आपको कुंजी दे दी है, उस किया, क्योंकि उन्होंने पाया कि जितने तुम समाज से जुड़े हो, गुप्त-कुंजी को मुझे भी दे दें। उस सूफी फकीर ने कहा, ठीक! उतने ही अपने से टूट जाते हो।
लेकिन तुम इसे गुप्त रख सकोगे? किसी को बताना मत ! उसने स्वाभाविक गणित था। समाज से टूट जाओ, अपने से जुड़ कहा कसम खाता हूं आपकी-पैर छुए-कभी किसी को न जाओगे। फिर महावीर लौटे, समाज में लौटे, समझाने आये, बताऊंगा। वह सूफी बोला फिर ठीक, मैंने भी ऐसी ही कसम बोले, लेकिन बारह वर्ष के मौन के बाद बोले। अब समाज से खायी है अपने गुरु के सामने। अब बोलो मैं क्या करूं? अगर जुड़ने का कोई उपाय न था। अब उन्होंने सब भांति अपनी तुम गुप्त रख सकते हो जीवनभर, तो मैं भी रख सकता हूं। और निपटता, एकांत को उपलब्ध कर लिया था। सब भांति कैवल्य अगर तुम सच पूछते हो, तो मेरे गुरु ने भी मुझे बतायी नहीं, को जान लिया था, स्वयं के अकेलेपन को पहचान लिया था। क्योंकि उसने भी अपने गुरु के सामने ऐसी ही कसम खायी थी। फिर आये। अब कोई डर न था, अब बोले। अब भाषा केवल सिर्फ अफवाह है, परेशान मत होओ। उपयोग की बात रह गयी। एक साधनमात्र। तुम्हारे लिए भाषा । गुप्त बात गुप्त रखी नहीं जा सकती। आदमी बोझिल अनुभव केवल साधन नहीं है। भाषा तुम्हारी व्यस्तता है। बिना बोले तुम करने लगता है। जो बाहर से आया है वह बाहर लौटाना पड़ता घबड़ाने लगते हो। अगर कोई बात करने को न मिले, तो बेचैन है। जब तुम बोलते हो, तुमने खयाल किया, तुम वही बोलते हो होने लगते हो।
जो बाहर से तुम्हारे भीतर आ गया है। वह भारी होने लगता है। कहते हैं कि अगर तीन सप्ताह किसी आदमी को सुबह अखबार पढ़ लिया, फिर वही अखबार तुम दूसरों से एकांत में बंद कर दिया जाए, तो पहले सप्ताह तो वह बोलने लगे। जब तक तुम किसी को बता न दो तुमने अखबार में भीतर-भीतर बात करता है; दूसरे सप्ताह बोल-बोलकर बात क्या पढ़ा है, तब तक तुम्हें चैन नहीं। यह विजातीय तत्व है जो करने लगता है-अकेले में; और तीसरे सप्ताह तो वह बाहर से आ जाता है, इसे बाहर निकालना पड़ता है। यह तुम्हारी बिलकुल खयाल ही भूल जाता है कि अकेला है। वह अपनी प्रकृति को विकृत करता है। बाहर निकलते ही से तुम हलके हो प्रतिमाएं कल्पना की खड़ी कर लेता है, उनसे बातचीत में संलग्न जाते हो। इसीलिए तो किसी से अपनी बातें कहकर आदमी हो जाता है।
हलकापन अनुभव करता है। रो लिया दखड़ा हो गये हलके। कम्युनिस्ट मुल्कों में जिन कैदियों से उन्हें बात उगलवानी होती पश्चिम में तो अब कोई किसी की सुनने को राजी नहीं। है, उनको वे सताते नहीं, उनको वे सिर्फ एकांत में डाल देते हैं, किसके पास फुर्सत है! तो व्यावसायिक सुननेवाले पैदा हो गये
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