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है कि द्वंद्व नहीं है और सभी द्वैत एक ही में जुड़े हैं, बस मंजिल करीब आ गयी। यह आखिरी पड़ाव है। इसके बाद जो बचता है, उसे तो एक कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि जहां दो ही नहीं बचे, वहां एक कैसे कहें! इस पड़ाव तक दो रहते हैं, इस पड़ाव पर दो एक हो जाते हैं, इसके बाद तो एक भी कहना उचित नहीं | इसलिए तो वेदांत परमात्मा को एक नहीं कहता, कहता है - अद्वैत । दो नहीं। बस इतना ही कहा जा सकता है— दो नहीं। इसलिए तो महावीर कहते हैं, परमात्मा और आत्मा ऐसा नहीं, आत्मा ही परमात्मा । वे भी अद्वैत की ही बात बोल रहे हैं, अपने ढंग से, एक ही। मगर एक कहना ठीक नहीं, क्योंकि एक से दो का खयाल उठता है, दो से तीन का खयाल उठता है, तीन से चार का खयाल उठता है । एक का कोई अर्थ ही नहीं होता अगर और संख्याएं न हों। और वह इतना एक है कि वहां और कोई संख्या नहीं।
ध्यान गहरा होगा, तो वह पड़ाव आयेगा जहां द्वंद्व मिट जाते हैं। तब दौड़ना, अब घर बहुत करीब आ गया; अब तुम ठीक सामने ही खड़े हो । अब दर्शनशास्त्र में मत उलझ जाना। अब यह प्रश्न मत पूछो मुझसे कि 'जानने की चाह में मैंने रात को दिन रचते देखा, ऐसा क्यों हुआ ?' अब यह 'क्यों' उठाया तो तुम वापिस लौट पड़ोगे । 'क्यों' उठाया कि फिर चिंतन - विचार शुरू हुआ। अब छोड़ो, अब भूलो। अब यह 'क्यूं' और 'क्या', अब यह दर्शन और विज्ञान छोड़ो। अब तो दौड़ पड़ो। यह आखिरी पड़ाव है, इससे बिलकुल सामने मंजिल है । अब तो सीधे घुस जाओ उस अद्वैत में।
हर सुबह शाम की शरारत है
हर हंसी अश्रु की तिजारत है मुझसे पूछो न अर्थ जीवन का - जिंदगी मौत की इबारत है।
सब जुड़े हैं । सब इकट्ठे हैं।
कफन बढ़ा तो किसलिए नजर तू डबडबा गयी सिंगार क्यों सहम गया, बहार क्यों लजा गयी न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ, बस इतनी सिर्फ बात हैकिसी की आंख खुल गयी, किसी को नींद आ गयी आंख खुलने और बंद होने का ही फर्क है। आंख बंद हो गयी, मर गये। आंख खुल गयी, जन्म गये। इतना ही फर्क है - आंख
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ज्ञान ही क्रांति
खुलने और बंद होने का । और जिस पर आंख खुलती और बंद होती है, वह तो न तो जन्मता और न मरता । तुम्हारी आंख की झलक बंद होती रहती है, खुलती रहती है— आंख झपकती रहती है। तुम बिना झपके भीतर मौजूद हो। सृष्टि है परमात्मा की आंख का खुल जाना। प्रलय है परमात्मा की आंख जाना। लेकिन दोनों के पीछे जो छिपा है - शाश्वत चैतन्य, वह न तो कभी जन्मता, न कभी मिटता । न उसका कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है । न कोई दुख है, न कोई सुख है। न कोई हार है, न कोई जीत है।
जब ऐसा तुम्हें लगे कि तुम उस जगह आ गये जहां रात दिन को जन्म देती दिखायी पड़ती है, तो अब भूलकर भी उठाना । प्रश्न भटका देंगे। क्योंकि प्रश्न उत्तर में ले जाएंगे, उत्तर और प्रश्नों में ले जाएंगे। फिर तुम वापस आ गये। इस घड़ी तो सब प्रश्न - उत्तरों की गठरी बांधकर फेंक देना, दौड़ पड़ना । निर्भर होकर, घुस जाना उस अनंत में।
बहुत से लोग ध्यान से लौट आये हैं। समाधि तक नहीं पहुंच पाते। क्योंकि ध्यान के आखिरी पड़ाव पर फिर प्रश्न बड़े प्रबल होकर उठते हैं। वस्तुतः बहुत प्रबल होकर उठते हैं। क्योंकि मन अपनी आखिरी चेष्टा करता है, अंतिम चेष्टा करता है। जैसे सुबह होने के पहले रात खूब अंधेरी हो जाती है । या दीया बुझने के पहले ज्योति खूब लपककर जलती है । या मरने के पहले आदमी एकदम स्वस्थ मालूम होने लगता है— बीमार आदमी भी । आखिरी उफान आता है, आखिरी ज्वार आता है जीवन का। ऐसे ही मन भी मरने के पहले, खोने के पहले बड़ी प्रबलता से प्रश्न उठाता है। उस वक्त अगर तुम जरा चूके, तो मन तुम्हें खींच लेगा ।
बच्चों का खेल देखा है? सीढ़ी और सांप - लूडो । तो बच्चे खेलते हैं। सीढ़ी से तो चढ़ जाते हैं, सांप से नीचे उतर आते हैं। अगर सीढ़ी पर पहुंच जाते हैं, तो ऊपर चढ़ते हैं। अगर सांप का मुंह पकड़ जाता है, तो नीचे उतर आते हैं। पासे फेंकते हैं। निन्यानबे के आंकड़े पर भी सांप का मुंह है । अगर पर पहुंच गये, तो जीत गये। लेकिन निन्यानबे तक भी सांप का मुंह है। जीवन का खेल भी ऐसा ही खेल है। सीढ़ी और सांप ! यहां आखिरी चरण निन्यानबे डिग्री पर भी, जब मन बिलकुल मिटने करीब होता है, सांप का मुंह खुलता है- आखिरी
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