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वो इशारे हैं बहक जाना ही ऐने-होश है
मेरे
अभी तो बहक लो मेरे साथ । अभी तो यही होश है कि तुम साथ बहको । कि मेरे साथ पागल हो लो।
होश में रहना यकीनन सख्त नादानी है आज
आज तो होश की बातें मत करो। आज तुम गणित मत बिठाओ कि सुन भी लूं, देख भी लूं, बुद्धि को भी समझ में आ जाए, हृदय में भी रस उतर जाए। अभी तुम गणित मत बिठाओ, अभी तर्क मत बिठाओ। अभी तो बहक लो। जहां से बहकना आ जाए, वहीं से सही। अभी तो तुम मेरे साथ मस्त हो लो। यह घड़ी अगर मस्ती में बीत जाए, तो धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम मस्ती की गहराइयों से परिचित होने लगोगे, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि सभी इंद्रियों को एक-साथ जोड़ा जा सकता है। तब न केवल आंख, न केवल कान, बल्कि और इंद्रियां भी सक्रिय होंगी।
किसी-किसी को वैसा अनुभव होता है। कोई मेरे पास होता है, तो उसे एक खास तरह की गंध आने लगती है। उसका अर्थ है, वह केवल मुझे सुन ही नहीं रहा, देख ही नहीं रहा, मुझे सूंघ भी रहा है। और कुछ थोड़े-से लोग हैं, बहुत थोड़े-से | लोग कोई दो-चार लोगों ने मुझे कभी कहा है कि सुनते-सुनते उनके कंठ में एक तरह का स्वाद भी आने लगता है। तो चौथी इंद्रिय भी सम्मिलित हो गयी, स्वाद भी। जैसे कोई बूंद अमृत की भीतर टपक गयी हो। उनसे भी कम कुछ लोग हैं- एकाध ही कभी किसी ने मुझे कहा है कि सुनते-सुनते सारे शरीर में एक अनूठे स्पर्श का बोध होता है। एक तरंग ! जैसे मैंने उनके सारे शरीर को आलिंगन में ले लिया हो । तो पांचों इंद्रियां सम्मिलित हो गयीं। अभी तो एक-एक को साधो । दो को एक-साथ साधना मत। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे सभी इंद्रियां एक-साथ सजग होकर मेरे पास हो जाएंगी।
जिस दिन सभी इंद्रियां सजग होकर मेरी निकटता में आ जाएंगी, उस दिन सत्संग शुरू हुआ। उसके पहले सत्संग तो है, लेकिन सीमित है। किसी का आंख का सत्संग है, किसी के कान का सत्संग है, लेकिन सीमित है । तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व का सत्संग नहीं हो रहा है।
पर जल्दी की भी नहीं जा सकती। यह तो धीरे-धीरे... कला है, जो धीरे-धीरे आती है। आते ही आते आती है। ऐसा नहीं कि तुम उसे ले आओगे।
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चौथा प्रश्न : समर्पण और अंधानुकरण में क्या अंतर है ?
अंतर है भी और नहीं भी। दोनों बातें समझ लें । अंधानुकरण का अर्थ है, अपने स्वानुभव के बिना किसी को माने चले जाना । जैसे तुम जैन-घर में पैदा हुए, या हिंदू-घर में पैदा हुए, या मुसलमान-घर में पैदा हुए, और तुम अपने को मुसलमान माने चले जाते हो, यह अंधानुकरण है। न तो मुहम्मद से तुम्हारा कोई संबंध बना, न कोई सत्संग हुआ। न मुहम्मद की आभा से तुम्हारा कोई मिलन हुआ। जैन-घर में पैदा हो गये हो । महावीर से कोई मेल-जोल नहीं है। महावीर से कुछ लेन-देन नहीं हुआ। महावीर से कोई साक्षात्कार नहीं हुआ। महावीर की वाणी के फूल तुम्हारे हृदय में खिले नहीं। महावीर की वीणा का संगीत तुम तक पहुंचा नहीं। संयोगवशात तुम जैन-घर में पैदा हुए हो। इसलिए बचपन से जैन-धर्म की बात सुनी, जैन - शास्त्र सुना, जैन मंदिर गये, महावीर का नाम सुना बार-बार, सुनते-सुनते स्मृति में बैठ गया । तुम कहते हो, मैं जैन हूं। यह अंधानुकरण है । जो लोग महावीर के समय में महावीर की
से आंदोलित होकर महावीर के चुंबक से खींचे गये थे; जिन्होंने महावीर को भर आंख देखा था; जिन्होंने महावीर को पूरे कानों से सुना था, जिन्होंने महावीर को अपने हृदय में पीया था, और उस पीने में जाना था कि ठीक है, यही मार्ग ठीक है, और उस मार्ग पर चल पड़े थे, तब समर्पण था, अंधानुकरण नहीं।
समर्पण तो जीवित सदगुरु के पास ही हो सकता है। इसलिए दुनिया में सौ में से निन्यानबे लोग तो अंधानुकरण में हैं। मह जब गांव से गुजरे थे, तो उनमें से कोई कृष्ण को मानता था, इसलिए सुनने नहीं गया। कोई राम का भक्त था, इसलिए कैसे महावीर के पास जाता ! वे अंधानुकरण में थे। लेकिन उन्हीं राम और कृष्ण भक्तों में से कुछ हिम्मतवर थे, जो महावीर को सुनने गये थे। उन्होंने अपने अंधानुकरण को एक तरफ रखा। उन्होंने कहा, परंपरा परंपरा है, परंपरा मेरी आत्मा नहीं। किसी घर में पैदा हुआ हूं, यूं ठीक है; लेकिन जो धर्म मैंने नहीं चुना, वह मेरे प्राणों को कैसे स्पंदित करेगा? धर्म चुनाव है— सजगता से, गहन सोच-विचार से, चिंतन-मनन से, ध्यान-निदिध्यासन से, अपने जीवन को दांव पर लगाना है। धर्म उधार नहीं मिलता। तो जो धर्म तुम्हें घर के कारण, परिवार के कारण, समाज के
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