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दुख की स्वीकृति : महासुख की नींव
सम्हाला तो, लेकिन चोटें-चपेटें न दीं। आंधी भी चाहिए, ओले जाता है। भीड़ में रहनेवाले आदमी की आत्मा खो जाती है। भी चाहिए, तूफान भी चाहिए; सहारा भी चाहिए। इन दोनों के दोनों के बीच में। अकेले रहना है, भीड़ में रहना है। और भीड़ में बीच में गेहूं पैदा होता, पकता। बल पैदा होता है चुनौती से। रहना है और अकेले रहना है। घूमो, चलो बाजार में, लेकिन पुष्ट बीज
भीतर हिमालय का एकांत बना रहे। तो पहली तो बात है कि बीज पुष्ट हो।
संबंधों से भागो मत। क्योंकि संबंधों के थपेड़े जरूरी हैं। सुष्ट खेत
क्रोध, संघर्ष, चोट, चुनौती जरूरी हैं। भीतर ध्यान को साधो, फिर खेत तैयार हो। ऐसे हर कहीं बीज फेंक देने से कहीं | बाहर प्रेम के धागे को पकड़े रहो। फसल नहीं काटी जाती। पत्थर, कूड़ा-कर्कट, घास-पात अलग | पुष्ट बीज करना होगा। खाद खेत में डालनी होगी। श्रम करना होगा। सुष्ट खेत पुष्ट बीज
साथी-संगी समेत सुष्ट खेत
सुसमय बोइये साथी-संगी समेत
ठीक समय पर बोना पड़ेगा। चाहे ठीक समय आधी रात अकेले भी न हो पायेगा। जीवन में कुछ भी तो अकेले नहीं हो आये। चाहे ठीक समय भर-दोपहरी में आये। ठीक समय जो पाता। जीवन है ही संग-साथ में। हम समाज में पैदा होते, भी मांगे, देना होगा। ठीक समय की प्रतीक्षा करनी होगी, सजग समाज में जीते, समाज में विदा होते। हमारा होना सामाजिक है। प्रहरी की तरह, आंखें खोले। झपकी न लेनी होगी। क्योंकि संबंधों में है। जैसे मछली सागर में जन्मती है, ऐसे हम संबंधों के ठीक समय पर पड़े बीज ही ठीक समय पर फूलेंगे, फलेंगे। सागर में जन्मते हैं। बिना मां के, बिना पिता के कौन पैदा जरा-सा समय चूक गये, तो जो जरा-सा समय चूक गया, वह होगा? कैसे पैदा होगा? बिना भाई-बहन के, बिना मित्र-शत्रु सदा के लिए बाधा बन जाता है। फिर उसे पूरा करने का कोई के कौन बढ़ेगा, कैसे बढ़ेगा?
उपाय नहीं। पुष्ट बीज
पुष्ट बीज, सुष्ट खेत
सुष्ट खेत, साथी संगी समेत
साथी संगी समेत, इसलिए मेरा बहुत जोर है कि तुम ध्यान भी साधो और प्रेम भी | सुसमय बोइये, साधो। ध्यान का अर्थ है, तुम अकेला होना साधो। और प्रेम का | सींचिए सुसाध से, अर्थ है, तुम संबंधों में भी माधुर्य को निर्मित करो। ऐसा न हो कि | रात दिन तुम अकेले-अकेले रह जाओ। तो तुम सूख जाओगे। कुछ बड़ा बात बिन बहुमूल्य तुम्हारे भीतर मर जाएगा। जंगल में भाग गये संन्यासी | खेत को रखाइये। का कुछ बहुमूल्य मर जाता है। भीड़ में ही रहनेवाले आदमी का काल थक जाए जब, भी कुछ बहुमूल्य मर जाता है। दोनों अधूरे हैं। भीड़ में रहनेवाले धान पक जाए जब, आदमी को अपने घर का पता खो जाता है। वह अपने | होकर इकडे फिर, मन-मंदिर तक लौट ही नहीं पाता। भीड़ में ही भटक जाता है। काटिये कटाइये। याद ही नहीं रहती कि मैं कौन हूं? अकेला जो चला गया, उसे जीवन ऐसा ही है। सभी कुछ सुविधा से मिलता होता, तो अपनी तो याद आने लगती है, लेकिन दूसरे का स्मरण भूल जाता सभी को मिल गया होता। सुविधा काफी नहीं है। साधना भी है। और दूसरे के स्मरण के बिना अहंकार खूब मजबूत हो जाता जरूरी है। और अगर अकेली साधना से ही मिलता होता, तो भी है। एकांत में रहनेवाले व्यक्ति का अहंकार खूब बलशाली हो बहुत अड़चन न थी। साधना के भीतर सुविधा भी आवश्यक
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