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ध्यान का दीप जला लो।
नदियों से गुजरती है, वहां रुक नहीं जाती। सुंदर उपत्यकाओं में, प्रतीक शब्द है। लेकिन रुक नहीं जाती। असंग-भाव से बहती रहती है। अकेली | लेकिन इसे वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि कहीं कोई एक ही रहती है, कोई संगी-साथी नहीं बनाती।
बिंदु तो होना ही चाहिए अस्तित्व में अभी तक उसका कोई महावीर कहते हैं, निसंग-भाव साधु का आत्यंतिक लक्षण है। पता नहीं चला, कहां है। अभी तक हमें पूरे अस्तित्व का ही पता उसमें सब के प्रति मैत्री है, लेकिन मित्र वह किसी को भी बनाता | नहीं चला, तो केंद्र का कैसे पता चलेगा! बड़ा विराट है नहीं। इसको खयाल लेना।
अस्तित्व। अभी तो हम परिधि को भी नहीं छू पाये हैं, तो केंद्र को मैत्री-भाव को महावीर ने बहत महिमा दी है। लेकिन कहा. कैसे छ पायेंगे। लेकिन वैज्ञानिक इसको एक 'हाइपोथीसिस'. मित्र मत बनाना। मित्र बनाने में अर्थ हआ, रुक गये, नदी ठहर | | एक परिकल्पना की भांति स्वीकार करते हैं कि जरूर कोई एक गयी, डबरा बन गयी। मैत्री रखना। सब के प्रति प्रेम-भाव कील तो होनी ही चाहिए, जिस पर सारा अस्तित्व घूम रहा है। रखना। लेकिन प्रेम को कहीं ठहराकर डबरा मत बनाना। हवा | चांद-तारे घूम रहे हैं, सूरज घूम रहा है, पृथ्वी घूम रही है, की तरह मुक्त रहना। कहीं बंधना मत। हवा को कौन बांध | ग्रह-नक्षत्र घूम रहे हैं। यह इतना विराट चक्र घूम रहा है, तो कहीं पाया? हवा कहां रुकती? यात्रा, अनंत यात्रा, और कोई कील तो होनी ही चाहिए। अन्यथा बिना कील के तो चाक अकेली...।
घूम नहीं सकता था। उस कील को जैन-शास्त्रों ने मेरु कहा है। 'सूर्य-सा तेजस्वी....।' यह सिर्फ प्रतीक ही नहीं हैं। 'मेरु-सा निश्चल...।' और साधु वही है, जिसने अपने महावीर जैसे व्यक्ति जब किन्हीं शब्दों का उपयोग करते हैं, तो यूं भीतर की कील को पा लिया। शरीर चलता है, साधु नहीं ही नहीं करते। गहरे कारणों से करते हैं। जैसे ही व्यक्ति सरल चलता। शरीर भोजन करता है, साधु नहीं करता। शरीर बोलता होता है, निसंग होता है, भद्र होता है, निरीह होता है, अकेला | है, साधु अबोला है। शरीर जवान होता, बूढ़ा होता; साधु न होता है, वैसे ही उसके भीतर एक अगाध ज्योति जलने लगती जवान होता, न बूढ़ा होता। शरीर जन्मता है, मरता है; साधु का है। क्योंकि कपट में बुझ जाती है ज्योति। कपट का धुआं तुम्हारी न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। ऐसी प्रत्येक क्रिया के बीच, ज्योति को घेर लेता है। पाखंड में बुझ जाती है ज्योति। सरलता प्रत्येक गति के बीच, प्रत्येक भंवर के बीच, जिसने अपने भीतर में धुआं बिखर जाता है, अलग हो जाता है, ज्योति जलने लगती | के मेरु को पकड़ा हुआ है, वही साधु है। चलो राह पर, मगर है। सूर्य-सा तेजस्वी हो जाता है व्यक्ति। रक्ताभ! एक आभा | एक बात ध्यान में रखकर चलना कि तुम न कभी चले हो, न चल उसे घेर लेती है।
| सकते हो। चलता है चाक, तुम ठहरे हुए हो। कूटस्थ। सदा से • 'सागर-सा गंभीर...।' विराट! जिसकी कोई सीमा नहीं, ठहरे हुए हो। कभी हिले नहीं। तुम ही हिल जाओ, तो फिर कोई कूल-किनारा नहीं। जिसकी थाह पानी मुश्किल। ऐसा शरीर चल न सकेगा। फिर तो डगमगा कर वहीं गिर जाएगा। गहरा, गंभीर।
| विचार चलते हैं। विचार का वर्तल घमता रहता है-बवंडर 'मेरु-सा निश्चल...।' मेरु जैन-पुराणों का प्रतीक है। मेरु की भांति। तुमने कभी धूल के बवंडर देखे? गर्मी के दिनों में है वह पर्वत, जो विश्व का केंद्र है। और जिसके केंद्र पर सारी | जब उठते हैं—बड़ा बवंडर उठता है, बड़े धूल के बादल उठते चीजें घूमती हैं। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है कील पर। मेरु | हैं-आकाश तक उठ जाते हैं, छप्पर उड़ जाते मकानों के, कील है सारे अस्तित्व की। और जैसा गाड़ी का चाक घूमता है, टीन-टप्पर उड़ जाते हैं, कभी-कभी तो छोटे बच्चे तक उड़ गये लेकिन कील थिर रहती है। चाक घम ही इसीलिए सकता है कि हैं; लेकिन जब तूफान चला जाए, आंधी विदा हो जाए, धूल का कील थिर रहती है। अगर कील भी घूम जाए, गाड़ी गिर जाए। बवंडर शांत हो जाए, तब तुम जरा जाकर देखना उस भूमि पर कील को नहीं घूमना चाहिए, तो ही चाक घूम सकता है। यह जहां बवंडर उठा था। तुम बड़े चकित होओगे, बीच में एक केंद्र सारा संसार घूम रहा है, क्योंकि केंद्र में कोई चीज है जो थिर है। है; उसका निशान छूट जाता है। चारों तरफ बवंडर के निशान शाश्वत-रूप से थिर है। जैन-पुराण उसे मेरु कहते हैं। वह तो छूट जाते हैं, लेकिन बीच में एक बिलकुल शुद्ध जगह है, जहां
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