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लोगों से ज्यादा सरल हैं। होना नहीं चाहिए था ऐसा। क्योंकि पूरब के लोगों को खयाल है, हम धार्मिक हैं। लेकिन पूरब का आदमी बड़ा जटिल है। पश्चिम से आदमी आता है तो वह सरल है। उसकी सरलता, पशुओं जैसी सरल है। तुम्हारा साधु कहेगा, यह तो पशु - व्यवहार है। महावीर से पूछो, उसकी | सरलता बच्चों-जैसी है। तुम पश्चिम के आदमी को सुविधा से लूट सकते हो। पूरब के आदमी को लूटना इतना आसान नहीं | इसके पहले कि तुम उसकी जेब काटो, उसका हाथ तुम्हारी जेब में पहुंच जाएगा।
पूरब का आदमी जो प्रश्न भी पूछता है, वे भी जटिल हैं। सरल नहीं हैं। उसके प्रश्नों में भी दांव-पेंच है, शास्त्र है, परंपरा है। सीधे हृदय के प्रश्न नहीं हैं।
पश्चिम से आदमी आता है, सीधे प्रश्न पूछता है – और पश्चिम भौतिकवादी है। और पूरब अध्यात्मवादी है— लेकिन इस अध्यात्मवाद ने सरल नहीं बनाया, इसने और जटिल बना | दिया । जटिलता बड़े रूप ले लेती है। और ऐसे सूक्ष्म रूप ले लेती है कि तुम्हें पता भी न चले।
फिर ऐसा भी मेरा अनुभव है कि जब साधु मुझसे मिलने आते हैं, तो उनसे मैं सामान्य गृहस्थ को ज्यादा सरल पाता हूं। साधु तो बड़ा जटिल मालूम होता है। कभी-कभी साधु मुझसे मिलने आते हैं। तो पहले उनके श्रावक आते हैं, वे कहते हैं महाराज जी को बिठाइयेगा कहां ? तुमको क्या फिकिर ! आने दो उनको, मेरे | और उनके बीच में निपटारा कर लेंगे। कहां बिठाना, कहां नहीं | बिठाना! लेकिन वे कहते हैं कि नहीं, महाराज जी ने ही पुछवाया है; बैठेंगे कहां वह ? अगर जैन मुनि को हाथ जोड़कर नमस्कार भी करो, तो वह नमस्कार का उत्तर नहीं देता। क्योंकि वह हाथ जोड़ नहीं सकता किसी को । यह तो खूब साधुता हुई। यह तो खूब सरलता हुई ! यह तो बड़ी जटिलता हो गयी । श्रावक को कैसे वह हाथ जोड़े ? असंभव ।
एक महासम्मेलन हुआ, कोई तीन सौ साधु सारे देश से निमंत्रित थे। आयोजकों ने बड़ी मंच बनायी थी कि तीन सौ साधु साथ बैठ सकें। पर यह हो न सका। एक-एक को बैठकर ही प्रवचन देना पड़ा। क्योंकि कोई दूसरे के साथ बैठने को राजी न था। शंकराचार्य अपने सिंहासन पर ही बैठना चाहते थे । जब | शंकराचार्य सिंहासन पर बैठें, तो दूसरे लोग हैं, वे भी नीचे नहीं
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ध्यान का दीप जला लो!
बैठ सकते, उनको भी सिंहासन चाहिए। यह भी हो सकता है कि सबको साथ बिठा दो, लेकिन तब शंकराचार्य बैठने को राजी नहीं । क्योंकि उनको ऊपर ही होना चाहिए। वह किसी के नीचे बैठना तो दूर, किसी के साथ बैठने को भी राजी नहीं।
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ये लोग, जो कहते हैं कि हम आत्मा हैं, शरीर नहीं ! ये लोग, कहते हैं कि हम आत्मा हैं, मन नहीं! ये नीचे नहीं बैठ सकते। ये साथ नहीं बैठ सकते। बड़ी जटिलता है ! महावीर के शब्द याद रखना - 'मृग-सा सरल।' 'पशु-सा निरीह...।' पशु में एक निरीहता है। एक हेल्पलेसनेस । असहाय अवस्था है पशु की । साधु ऐसा ही असहाय होगा इस विराट संसार के उपद्रव में। अपने किए कुछ होता नहीं मालूम पड़ता । जो करते हैं वही गलत हो जाता है। जीवन में इतनी इतनी सूक्ष्म उलझाव की गलियां हैं कि भटक भटक जाते हैं।
'पशु-सा निरीह... ।' महावीर ने पशु को बड़ा सम्मान दे दिया । ये सारे प्रतीक पशुओं से ले लिये। मैं भी तुमसे कहता हूं कि पशुओं से बहुत कुछ सीखने को है । और जो मनुष्य पशु जैसा सरल न हो सके, वह छोड़ दे खयाल परमात्मा - जैसे सरल होने का । पशु-जैसी सरलता परमात्मा - जैसे सरल होने का पहला चरण है। पशु जैसी सरलता, निरीहता, असहाय अवस्था बड़ी बहुमूल्य है । सभ्यता बड़ी खतरनाक है । सभ्यता ने मनुष्य को मारा। सभ्यता महारोग है। इससे तो पशु बेहतर। आमतौर से तो हम पशुओं का उपयोग तभी करते हैं, जब हमें आदमी की निंदा करनी होती है। महावीर उपयोग कर रहे हैं प्रशंसा के लिए।
थोड़ा फर्क समझना। अगर किसी आदमी की हमें निंदा करनी होती है, तो हम कहते हैं, क्या पशु-जैसा व्यवहार कर रहे हो, आदमी बनो! महावीर कह रहे हैं, क्या आदमी - जैसा व्यवहार कर रहे हो, पशु बनो। इसलिए मैं कहता हूं, ये सूत्र बड़े क्रांतिकारी हैं। और महावीर ठीक हैं, सौ प्रतिशत ठीक हैं । आदमी पशु से भी गया- बीता है। आदमी जैसा पशुता से भरा है, ऐसी पशुता से भरा कोई भी पशु नहीं है। सिंह भी शिकार करता है, हिंसा करता है, लेकिन भोजन के लिए। खिलवाड़ के लिए नहीं ।
मैंने सुना है, एक कहानी है कि एक सिंह और एक खरगोश
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