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किया जाए कि वह भीतर के त्याग के लिए निमित्त बने । भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स ।। निमित्त बन जाए, बस । एक बहाना बने। लेकिन असली बात भीतर की रहे। तो लोग बाहर से तो छोड़ देते हैं, भीतर से छोड़ते नहीं । छोड़ने तक को पकड़ लेते हैं । त्याग तक की अकड़ आ जाती है कि मैंने लाखों छोड़े।
'जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है, तथा जो अपनी आत्मा में लीन है, वही साधु भाव-लिंगी है। '
द्रव्य - लिंगी, भाव-लिंगी, ऐसे साधुओं के दो रूप महावीर ने किये। द्रव्य - लिंगी वही है, जिसने धन छोड़ा; लेकिन पकड़ना न छोड़ा। भाव-लिंगी वही है, जिसने धन भी छोड़ा, लेकिन धन | छोड़ा क्योंकि पकड़ना ही छोड़ दिया। पकड़ ही छोड़ दी । नहीं तो मन बड़ा चालाक है। एक चीज छोड़ता है, दूसरी पकड़ लेता है, पकड़ कायम रहती है। धन छोड़ो, धर्म पकड़ लो। घर छोड़ो, संन्यास पकड़ । गृहस्थी छोड़ो, मंदिर पकड़ लो ।
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एक चीज छोड़ी, दूसरी पकड़ी, मुट्ठी तो बंधी ही रही कंकड़-पत्थर छोड़े एक रंग के, दूसरे रंग के पकड़ लिया। धन छोड़ा, तो ज्ञान पकड़ लिया। महावीर कहते हैं, पकड़ छोड़ो। मुट्ठी खुली रखो। सत्य कुछ आकाश जैसा है। मुट्ठी बांधो, बाहर हो जाता है। मुट्ठी खोलो, भीतर आ जाता है। खुली मुट्ठी पर पूरा आकाश रखा है। बंद मुट्ठी खाली है। कुछ भी नहीं । - कहावत तो है, लोग कहते हैं- बंद मुट्ठी लाख की। बंद मुट्ठी खाक की, लाख की छोड़ो ! खाक भी नहीं है। मगर बंद मुट्ठी लाख की लोग कारण से कहते हैं । वे यह कहते हैं, बंद रहे तो लोगों को भ्रम रहता है कि कुछ होगा । इसीलिए तो समझदार | लोग बंद मुट्ठी रखे हुए हैं। खुद भी डरते हैं खोलने से, कहीं खुद को भी पता न चल जाए कि कुछ भी नहीं है। बंद रहती है, तो खुद को भी भरोसा रहता है कि है, बहुत कुछ है। जब तक नहीं देखा तब तक तो है ही ! इसीलिए लोग आंख खोलकर नहीं देखते, नहीं तो सपने टूट जाएं! सपनों का संसार टूट जाए ! देहादिसंगहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम रओ, स भावलिंगी हवे साहू ।। भाव - लिंगी ही साधु है । द्रव्य - लिंगी साधु नहीं है;
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ध्यान का दीप जला लो !
साधु-जैसा दिखायी पड़ता है। और द्रव्य-लिंग और भाव-लिंग में फर्क क्या है? इतना ही फर्क है, भाव-लिंगी ने अंतर को बदला, जागकर; द्रव्य-लिंगी ने बाहर को बदला, सोये-सोये । इक दीया जला कि जल उठी सुबह इक दीया बुझा कि रात हो गयी एक शह लगी कि ढह गया किला एक शह लगी कि मात हो गयी इक हवा चली कि खिल उठा चमन इक हवा चली कि सब उजड़ गया एक पग उठा कि राह मिल गयी
एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया फर्क बड़ा थोड़ा-सा है। एक पग का ! इक दीया जला कि जल उठी सुबह
अगर जागरण जग गया, तो सुबह हो गयी। बस एक दीया जल जाए जागरण का; महावीर की भाषा में अप्रमाद का, होश का, विवेक का; एक दीया जल जाए, बस । तुम्हारे भीतर चैतन्य आ जाए बस, तुम उठते-बैठते जागे हुए उठने-बैठने लगो, तो सब बदल जाएगा। और वह एक दीया बुझ जाए, तो फिर तुम लाख उपाय करो, घर छोड़ हिमालय चले जाओ, वस्त्र छोड़ नग्न हो जाओ, धन छोड़ भिखमंगे होकर सड़क पर खड़े हो जाओ, कुछ भी फर्क न होगा। तुम तुम ही रहोगे । एक ही क्रांति है जीवन में, वह है भीतर की अंतर्ज्योति के जग जाने की क्रांति । और सब क्रांति के धोखे हैं।
इक दीया जला कि जल उठी सुबह इक दीया बुझा कि रात हो गयी
बस एक ही दीये का फर्क है तुममें और महावीर में। इसलिए घबड़ाना मत। बस एक दीये का फर्क है अंधेरे कमरे में और प्रकाशोज्ज्वल कमरे में। रात और सुबह में बस एक दीये का फर्क है।
एक शह लगी कि ढह गया किला एक शह लगी कि मात हो गयी इक हवा चली कि खिल उठा चमन इक हवा चली कि सब उजड़ गया एक पग उठा कि राह मिल गयी एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया
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