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जिन सत्र भाग: 2
BANDHANBAR
महावीर के धर्म का सार है, सृजनात्मक होने की कला। ऐसा भीतर भी मर जाएगा। जो उसके कारण ही जिंदा था, वह तो मर जैन-मुनि तुमसे न कहेंगे। क्योंकि उन्हें खुद भी ठीक-ठीक पता | जाएगा। तुम्हें नया शत्रु खोजना पड़ेगा ऊर्जा थिर नहीं रह नहीं कि अहिंसा का सारसूत्र क्या है। वे तो समझते हैं अहिंसा | सकती। ऊर्जा गतिमान है। सागर की तरह। सरिताओं की का सारसूत्र है पानी छानकर पी लेना, कि रात्रि भोजन न करना, तरह। हवाओं की तरह। कि मांसाहार न करना। ये तो बड़ी गौण बातें हैं—परिधि की | अगर ठीक दिशा न मिली, तो तुम्हारी जीवन-ऊर्जा गलत बातें हैं। इन्हें साधने से अहिंसा नहीं सधती, अहिंसा सध जाए | दिशाओं में भटकेगी भूत-प्रेतों की भांति। अंधेरी खोहों में तो ये जरूर सधती हैं। इन्हें साध लेने से अहिंसा नहीं सधती। | चीखेगी, चिल्लायेगी, पुकारेगी। अगर मुस्कुराहट न बन सकी, हिंसा इतनी आसान नहीं है कि पानी छानकर पी लिया और मिट तो तुम रोओगे, दुख के आंसुओं से भरोगे। अगर फूल न खिल गयी। पानी छानकर पीने में सृजनात्मकता क्या है? मांसाहार न सके, तो तुम कांटे बनोगे। किया तो हिंसा मिट गयी, काश, इतना आसान होता!
महावीर ने सूत्र को अहिंसा में पकड़ा है। अहिंसा का अर्थ है, हिंसा तुम्हारे भीतर है। मांसाहार करने से नहीं आती। तुम | जहां-जहां विध्वंस हो, वहां-वहां से अपने को ऊपर उठा लेना। मांसाहार करना रोक सकते हो। हिंसा नये द्वार-दरवाजे खोल | विध्वंस की वृत्ति से मुक्त हो जाना अहिंसा है। तोड़ने के भाव को लेगी। हिंसा तुम्हारे भीतर है। जब तक तुम सृजनात्मक न हो | छोड़ देना अहिंसा है। ऐसी कोई भी दिशा तुम्हारे जीवन में न हो जाओ, जब तक तुम गीत न गुनगुनाने लगो, गाली आयेगी और जहां तोड़ने में रस रह जाए। जोड़ने में रस आ जाए, तोड़ने में रस आयेगी। जब तक तुम शिखर पर न चढ़ने लगो जीवन के, तुम | खो जाए; मिटाने में तुम रत्तीभर भी ऊर्जा नष्ट न करो, बनाने में, अतल खाइयों में गिरोगे और गिरोगे। ऊर्जा को कुछ करने को | सृजन में। अगर तुम मिटाओ भी, तो सृजन के लिए ही। अगर चाहिए। या तो मूर्तियां बनाओ, अन्यथा मूर्तियां तोड़ोगे। बीच में | पुराने भवन को गिराओ भी, तो नया भवन बनाने के लिए ही। नहीं रुक सकते। बीच में कोई रुकने की जगह नहीं है। जो विध्वंसक है, वह अगर सृजन भी करता है तो मिटाने के लिए
तो कभी-कभी ऐसा आश्चर्यजनक इतिहास घटता है हिंद ही। वह बम बनाता है. तलवार पर धार रखता है। सजन तो वह मूर्ति बनाते रहे, बौद्ध-जैन मूर्ति बनाते रहे, मुसलमान मूर्ति तोड़ते भी करता है—बम बनाना सृजनात्मक है लेकिन बनाता रहे। अब थोड़ा सोचने-जैसा है। तुम्हें अगर मूर्ति से कोई | इसीलिए है कि मिटा सके। प्रयोजन ही न था, तो तोड़ने की भी झंझट क्यों उठायी? इसको खयाल में लेना, विध्वंसक बनाता भी है तो ध्वंस के लेना-देना ही न था कुछ तुम्हें! मूर्ति व्यर्थ थी, तो तोड़ने तक की लिए। और सृजनात्मक ऊर्जा मिटाती भी है, तो बनाने के लिए। झंझट क्यों उठायी? व्यर्थ के लिए कोई इतनी झंझट उठाता है! यह तुम्हें खयाल में आ जाए, तो महावीर की दृष्टि का सारसूत्र लेकिन नहीं, बनाना रुक जाए तो तोड़ने की आकांक्षा शुरू हो | पकड़ में आ सकता है। महावीर कहते हैं, जब भी तुम क्रोध से जाती है। ये वे ही लोग थे जो मूर्तिपूजक हो सकते थे। इनकी | भरते हो, जब भी तुम दूसरे को नष्ट करने के लिए आतुर हो उठते संभावना थी वही। लेकिन मूर्तिपूजा तो बंद कर दी गयी, तो जो हो, दूसरा नष्ट होगा या नहीं यह तो तुम छोड़ दो, क्योंकि इस पूजा बन सकती थी, वही मूर्ति का विध्वंस बन गयी। तो फिर जगत में विनाश कहां, कौन कब नष्ट हुआ, कौन किसको नष्ट तुम मूर्तियां तोड़ो। कुछ तो करना ही होगा। मूर्ति से संबंध तो कर पाया है; यहां जो है, सदा रहनेवाला है; आत्मा को तो मारा छोड़ ही नहीं सकते। अगर मित्र का नहीं तो शत्रु का सही, संबंध नहीं जा सकता, आत्मा तो अमर है, शाश्वत है, लेकिन तुम तो बनाना ही होगा।
मारने की आकांक्षा से भरे कि तुमने अपने जीवन की दिशा खोनी खयाल किया, शत्रु से भी हमारे संबंध होते हैं। और शुरू कर दी। तुम भटके, तुम खोये, तुमने गलत राह पकड़ी। कभी-कभी तो मित्र से भी ज्यादा निकट होते हैं। मित्र के बिना जीवन को इस ढंग से देखना कि तुम्हारे भीतर जो भी तम सत्व तो तुम जी भी लो, शत्रु के बिना तुम बड़े अकेले अपने को लेकर पैदा हुए हो, वह धीरे-धीरे गहरे सृजन में निर्मित होता | पाओगे। अगर तुम्हारा शत्रु मर जाए, तो उसी दिन कुछ तुम्हारे जाए। मैं तुमसे कहूंगा, पानी छानकर पी लेना काफी नहीं है।
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