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जीवन ही है गरु
बाद किसी ने कभी क्रोध किया है? चौबीस मिनट बाद मुश्किल जैसे ही भीतर की क्रांति घटती है, भीतर दीया जलता है, तुम है; चौबीस पल बाद मुश्किल है! क्रोध तो उसी वक्त होता है। अचानक हैरान हो जाते हो कि बाहर सब बदल गया। सब वही उसी वक्त जलती है आग। यह तो ऐसा हुआ कि चौबीस घंटे है, और फिर भी वही नहीं है। बाद, तुम इतना सोचोगे-विचारोगे चौबीस घंटे कि तुम्हें साफ ही । रक्से-तरब किधर गया, नग्मा-तराज़ क्या हुए हो जाएगा कि या तो उस आदमी ने जो बात कही थी वह ठीक ही गम्जा-ओ-नाज क्या हुए, अस्वा-ओ-फन को क्या हुआ थी, या उस आदमी ने जो बात कही थी वह बिलकुल गैर-ठीक रक्से-तरब किधर गया-वे सुख के जो नृत्य बाहर चल रहे थी। अगर गैर-ठीक थी, तो क्रोध क्या करना! अगर ठीक थी, | थे, कहां गये? तो क्रोध क्या करना! चौबीस घंटे का फासला अगर हो जाए, तो नग्मा-तराज क्या हुए वे जो गायक बड़े मधुर मालूम होते क्रोध संभव नहीं।
थे, उनका क्या हुआ! लेकिन वैसा फासला हम ध्यान के लिए करते हैं, क्रोध के लिए गम्जा-ओ-नाज क्या हुए, अस्वा-ओ-फन को क्या हुआ। नहीं। इसलिए ध्यान कभी संभव नहीं हो पाता। लोग टाले चले कटाक्ष, हाव-भाव, सब खो गये। जाते हैं।
उन सब में अर्थ था, क्योंकि भीतर तुम सोये थे। ऐसा समझो, 'आभ्यंतर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि भी नियमतः होती है। तुम्हारी नींद संसार से जोड़े हुए है। नींद है सेतु तुममें और संसार आभ्यंतर-दोष से ही मनुष्य बाह्य-दोष करता है।' | में। जागरण सेतु है तुममें और परमात्मा में। या तुममें और
स्मरण रखना इस सूत्र कोः अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि तुम्हारी स्वयं की सत्ता में। होदि णियमेण। नियम से हो जाती है बाहर की शुद्धि, अगर अगर सोये हुए हो, तो संसार चलता रहेगा। संसार सोये हुए भीतर शुद्धि हो जाए। अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे आदमी का सपना है। अगर जागे हो, संसार समाप्त हुआ। नहीं दोसे। और भीतर के दोष ही बाहर आते हैं।
कि वृक्ष खो जाएंगे। नहीं कि मकान खो जाएंगे। नहीं कि तुम्हारी इसलिए बाहर के दोषों को बदलने की चिंता मत करो। भीतर पत्नी और बच्चे खो जाएंगे। लेकिन कुछ खो जाएगा। मकान जड़ें खोजो। बाहर की बदलाहट तो ऐसे है जैसे कोई पत्ते काटता होगा, तुम्हारा न होगा। पत्नी होगी, तुम्हारी न होगी। 'मेरा' रहे वृक्ष के और जड़ों को पानी देता रहे। तो पत्ते नये आते रहेंगे। 'तेरा' खो जाएगा। लोभ खो जाएगा। कोई अगर गाली देगा, पत्ते काटने से वृक्ष नहीं मरते। पत्ते काटने से वृक्ष और सघन हो तो गाली तो बाहर से आयेगी अब भी, लेकिन तुम अचानक जाते हैं। पत्ते काटने से एक पत्ते की जगह तीन पत्ते आ जाते हैं। पाओगे कि समस्या उसी आदमी की है।
अगर वक्ष को मिटाना ही हो, तो जड काटो। जड भीतर छिपी। मैंने सना है, एक झेन फकीर रास्ते से गजर रहा था और एक है। अंधेरे में दबी है। और ऐसा ही मनुष्य के जीवन में है। ऊपर आदमी उसे लकड़ी मारकर भागा। उसके संगी-साथी ने कहा, क्रोध आता है, लोभ आता है, काम आता है, तुम इनके साथ कुछ करो, तुम खड़े हो! वह फकीर बोला, मैं क्या करूं? लड़ने में लग जाते हो। ये पत्ते हैं। जड़, जड़ कहां है? जड़, समस्या उसकी है, मेरी नहीं। उसके भीतर जरूर कुछ आग जल महावीर कहते हैं, बेहोशी है। जड़ मूर्छा है। जड़ नींद है। जड़ रही होगी। उस आग के प्रभाव में ही वह क्रोध से भर गया है। काटो। होश से भरो। जागो।
अगर मैं उसे आज न मिलता-अच्छा हुआ मैं मिल अगर जागरण आ जाए तो क्रोध, माया, लोभ, मोह ऐसे ही खो गया नहीं तो वह किसी और पर उबल पड़ता। वह तो अच्छा जाते हैं जैसे जड़ें काट देने पर पत्ते खो जाते हैं अपने-आप। पत्तों हुआ कि मुझ पर उबला, किसी और पर उबलता तो दूसरा भी को तुम्हें तोड़ना भी न पड़ेगा, खुद ही कुम्हला जाएंगे, खुद ही | उस पर टूट पड़ता। वह मुश्किल में पड़ जाता। वैसे ही मुश्किल समाप्त हो जाएंगे।
में है! इतना क्रोध उसके भीतर जल रहा है, अब और उसे दंड 'आभ्यंतर-शद्धि होने पर बाह्य-शद्धि भी नियमतः होती है। देने की जरूरत है क्या? दंड उसने काफी पा ही लिया। लेकिन आभ्यंतर-दोष से ही मनुष्य बाह्य-दोष करता है।' | समस्या उसकी है, समस्या मेरी नहीं है।
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