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ज्ञान हे परमयोग
श्रेय को साधो। प्रेय से श्रेय को ऊपर रखो।
सधे, वही ज्ञान है। 'जेण मित्ती पभावेज्ज।' और जिससे मैत्री कल एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा, ध्यान करने बढ़े, प्रेम बढ़े, वही ज्ञान है। निश्चित ही पंडित का ज्ञान प्रेम को आया हूं। लेकिन ध्यान मुझे प्रीतिकर नहीं मालूम पड़ता। होता बढ़ाता नहीं। मुल्ला-मौलवी का ज्ञान प्रेम को बढ़ाता नहीं। ही नहीं मन करने का। अच्छा नहीं लगता करना। तो अब घटाता है। हिंदू मुसलमान से घृणा करता है, मुसलमान हिंदु से सवाल है, अगर मन को सुनना है तो फिर ध्यान न हो सकेगा। घृणा करता है। जैन हिंदुओं से, हिंदू जैनों से। यह ज्ञान नहीं हो मन कहता है यह क्या कर रहे हो? इतनी देर ताश के पत्ते ही | सकता। यह शास्त्र होगा। शास्त्र लड़वाता है। ज्ञान जुड़वाता खेल लेते, तो थोड़ा रस आता। इतनी देर सिनेमा में ही बैठ गये है। ज्ञान है परम योग। शास्त्र में संघर्ष है। तुम्हारी मान्यताएं, होते, तो थोड़ा रस आता। इतनी देर मित्रों से गपशप ही कर ली तुम्हारे विश्वास, तुम्हें दूसरों से खंड-खंड कर देते हैं। होती। यह भी क्या! क्या कर रहे हो यहां, समय क्यों खो रहे | तुमने कभी देखा, तुम किसी आदमी के पास बैठे हो। हो? जीवन भागा जा रहा है। भोग लो। मन हमेशा प्रेय की बिलकुल सटकर बैठे हो, और तुमने पूछा, आपका धर्म? और तरफ उत्सुक करता है। वह कहता है, जो प्रीतिकर है, वह करो। उसने कहा, मुसलमान। तुम जरा सरक गये। अभी तुम लेकिन मन के लिए जो प्रीतिकर है, वही नर्क सिद्ध होता है | बिलकुल पास बैठे थे। तुम जैन हो, या हिंदू हो, तुम जरा सरक आत्मा के लिए। और मन के लिए जो प्रीतिकर है, वही आत्मा गये। और अगर उसने कहा कि हिंदू हूं, जैन हूं, तो तुम और जरा के लिए जहर सिद्ध होता है। प्रेय को मान-मानकर ही तो हम | पास आ गये। आदमी वही है। अभी तुम पास बैठे ही थे, भटके हैं इतने जन्मों तक।
| लेकिन अगर उसने कहा मुसलमान, अगर कहा हिंदू, अगर कहा तो महावीर कहते हैं ज्ञान की किरण आयी, इसका प्रमाण होगा ईसाई, बस एक दीवाल खड़ी हो गयी। सत्य की दीवाल! कि श्रेय ऊपर आने लगा। अब तुम यह नहीं कहते कि मन क्या बस तुम अलग हो गये। तुमने पक्का कर लिया कि यह कहता है वह करेंगे। अब तुम कहते हो, जो करना चाहिए वही आदमी गलत है। ईसाई कैसे ठीक हो सकता है, मुसलमान कैसे करेंगे। प्रारंभ में तो बड़ा संघर्ष होगा। मन की पुरानी आदतें हैं। ठीक हो सकता है। मैं जैन हूं, बस जैन ही ठीक है। जल्दी पीछा न छोड़ेगा। मन के पुराने संस्कार हैं, वह बार-बार तुम्हारा विश्वास तो तुम्हें तोड़ रहा है दूसरे से। यह विश्वास तम्हें परानी ही धारणाओं में खींच लेगा। लेकिन संघर्ष करना| फिर ज्ञान नहीं हो सकता। यह तुम्हारी धारणा जोड़ नहीं रही। होगा। मन से ऊपर उठना होगा। और धन्यभागी हैं वे जो मन से और महावीर कहते हैं ज्ञान की यह कसौटी है कि वह जोड़ेगा। थोड़ा ऊपर उठ जाते हैं। क्योंकि मन के ऊपर उठते ही जीवन का | उससे प्रभाव बढ़ेगा प्रेम का। उससे मैत्री सघन होगी। उससे तुम परम धन है। मन के ऊपर उठते ही सौभाग्य है। मन के ऊपर | बेशर्त मैत्री में उतर जाओगे। तुम्हारी कोई शर्त न रहेगी कि तुम उठते ही परम आशीष की वर्षा हो जाती है। मन के साथ कौन हो। यहां हिंदू हैं मेरे पास संन्यासी, मुसलमान हैं मेरे पास | अभिशाप है। मन के शुरुआत में तो सभी चीजें प्रीतिकर मालूम संन्यासी, ईसाई हैं, यहूदी हैं, पारसी हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्ख होती हैं, अंत में सभी कड़वी हो जाती हैं।
हैं; दुनिया का ऐसा कोई धर्म नहीं है जिस धर्म से मेरे पास महावीर ने कहा है, जो प्रारंभ में मीठा हो, जरूरी नहीं कि अंत | संन्यासी न हों। शायद ऐसा कहीं भी आज घट नहीं रहा है। यह में भी मीठा हो। और जो प्रारंभ में कड़वा हो, जरूरी नहीं कि अंत अभूतपूर्व है। लेकिन यह घटना चाहिए सभी जगह। क्योंकि में भी कड़वा हो। बहुत-सी औषधियां कड़वी होती हैं लेकिन |
| ज्ञान की किरण उतरे और इतना भी न कर पाये, कि अंधविश्वासों स्वास्थ्य लाती हैं। और बहुत-सी मिठाइयां मीठी होती हैं और की और विश्वासों की दीवाल न गिरा पाये, तो ऐसे ज्ञान का क्या सिर्फ रुग्ण करती हैं। इसलिए चुनाव श्रेय का करना। विवेक से | करोगे? दो कौड़ी का है। दीया पैदा हो जाए और अंधेरा न हटे, करना, बोध से करना। मन की मानकर मत करना। मन | तो ऐसे दीये को क्या करोगे? वह बुझा है। उसे फेंको। उसे उलझाता है।
| व्यर्थ मत ढोओ। 'जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेए सु रज्जदि।' जिससे श्रेय 'मैत्रीभाव बढ़े, उसी को जिन-शासन ने ज्ञान कहा है।'
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