Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
इसी प्रकार भगवान मे लय होना भी जैन दर्शन को मान्य नहीं है, इससे तो आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता ही समाप्त हो जायेगी, जबकि प्रत्येक आत्मा एक अखण्ड स्वतन्त्र सत्ता है । वौद्ध दर्शन ने तो मुक्ति के विषय मे कुछ भिन्न वात ही कही है-वहा कहा गया है जिस प्रकार तेल क्षय हो जाने पर दीपक वुझ जाता है । विलय हो जाता है, वैसे ही आत्मा इधर उधर कही नही जाता, किन्तु क्लेश क्षय होने पर वह शात हो जाता है-आचार्य अश्वघोप की यह उक्ति प्रसिद्ध है
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेत .
स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् । '' तथा कृती निर्वृति मभ्युपेत्य".
क्लेश क्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। किन्तु उनका यह विश्वास दर्शन जगत् मे टिक नहीं सका, उनके द्वारा दी गई मोक्ष (निर्वाण) की इस व्याख्या को जैनदर्शन के धुरघर आचार्यों ने तर्क-वितर्क द्वारा जीर्ण शीर्ण कर डाली है। हा तो मैं बता रहा था, हमने मोक्ष की चौथी व्याख्या स्वीकार की है-जिसमे 'मारूप्य' मोक्ष का स्वरूप माना गया है, आत्मा परमात्मा के समान ही स्वरूप प्राप्त कर लेता है, अर्थात् स्वय परमात्मा बन जाता है ।
यही बात जैन दर्शन मे, जैन आचार्यों ने वार-बार दुहराई है। आचार्य अकलक का कथन है
___ आत्मलाभं विदुर्मोक्ष जीवस्यान्तर्मलक्षयात्रे जीव के अन्तर्मलो का क्षय होने पर मात्मा को जो स्वरूप लाभ अर्थात् स्वरूपदर्शन प्राप्त होता है, आत्मा आत्मा मे स्थिर हो जाता है-वही मुक्ति है।
१ सौदरानन्द १६०२८-२९ २ आचार्य अकलक (गमय वि० ७ वी सदी) सिद्धिविनिश्चय पृ० ३८४