Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जीवन-प्रसंग और अन्य पक्ष
जीवन की कला
कला, कला के लिए या कला जीवन के लिए ? इस पचड़े में वे कभी नहीं पड़े. आदर्शोन्मुख कला उनके जीवन का बीजमंत्र थी. जीवन किस प्रकार जीया जाय या जीवन को सुन्दर रीति से किस प्रकार व्यतीत किया जाय-इसकी कला क्या है ? इस गुत्थी पर अपना सरल, विमल व निश्चित विश्वास प्रकट करते हुए कभी-कभी वे कहते थे: "विचार पूर्वक जीने वाला प्रत्येक व्यक्ति, जीवन का एक आदर्श, जीवन की एक कला को लेकर जीता है. उसकी दृष्टि में कलारहित और आदर्श विहीन जीवन, जीवन नहीं होता, आदर्श रहित व्यक्ति भूलता है, पथ से भटक जाता है. उसके जीवन में कभी-कभी आदर्श के अभाव में ऐसी घड़ी भी आ सकती है जबकि वह अपने अस्तित्व को भी बिसार देता है. 'मैं कौन हूँ ? किस लिये यहाँ आया हूँ ? मेरा गन्तव्य क्या है ? मेरा कर्तव्य क्या है ?-आत्मा के इस अंतर्नाद को भी वह नहीं सुन पाता है. कलारहित मनुष्य कर्म करते हुए उसमें एकाग्र नहीं हो पाता. इसके अभावमें उसे कर्म से आनन्दानुभव भी नहीं होता !" स्वामीजी महाराज ने ११ वर्ष की फूल-सी सुकोमल अवस्था में ही जीवन का आदर्श स्थापित कर लिया था. उसी आदर्श पर जीवन की अंतिम साँसें खर्च करते समय तक वे अविराम चलते-बढ़ते रहे. उनका ज्ञान शुष्क ज्ञान न था. उनका आदर्श पंखविहीन न था। वे जीवन की आवश्यक मांग और भूख से भागने में भी विश्वास नहीं करते थे. विश्वास एक ही बात पर करते थे, “घूमे मन, पर गुमराह न हो." और "पाप न मन में आ पाए." वे मानते थे कि समाज में रहकर पलकें बन्द करके योग-साधना का नाटक नहीं खेला जा सकता है. हमें समाज को अपनी दृष्टि से ओझल नहीं करना होगा. एक जैन भक्त कवि की जीवन-व्यवस्था और जीवन-कला के अनुसार "अंतर घट न्यारा रहे, जूं धाय खिलावे बाल." के वे जीवन्त उदाहरण ही थे. उनकी जीवन-साधना का आदर्श और कला का सार—'आत्मभाव के अतिरिक्त संसार के समस्त परभाव से विमुक्त हो जाना ही परम काम्य और संलक्ष्य है. उनके इस प्रकार के नि:स्पृह जीवन के प्रति जनता में आकर्षण का कारण यह था कि जो भी एक बारगी उनके परिचय में आ गया, उनके मन में उनके प्रति श्रद्धा सदा-सदा के लिए स्थिर हो गई. और उनमें जिनकी भी एक बार श्रद्धा उत्पन्न हुई वह सदा-सदा को मूर्तिमान हो गई.
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