Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 3000000000
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भावार्थ - रत्नद्वीप देवी ने माकंदी पुत्रों को अपने साथ लिया और अपने उत्तम प्रासाद में आई। उसने उनके अशुभ पुद्गलों का अपहार किया तथा शुभ पुद्गलों का प्रक्षेप किया। वैसा कर वह उनके साथ विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी। वह प्रतिदिन उन्हें अमृत तुल्य मधुर फल देने लगी ।
(२०)
तए णं सा रयणदीवदेवया सक्कवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवड़णा लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टियव्वे त्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कट्टं वा कयवरं वा असुइं पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं सव्वं आहुणिय २ तिसत्तखुत्तो एते एडेयव्वं तिकट्टु णिउत्ता ।
शब्दार्थ - तिसत्तखुत्तो - इक्कीसवार, आहुणिय - हटाकर, एडेयव्वं - फेंक देना है। भावार्थ - तदनंतर शक्रेन्द्र के आदेश से लवण समुद्र के अधिपति सुस्थित नामक देव ने रत्नदीप देवी से कहा कि तुम्हें लवण समुद्र का इक्कीस बार चक्कर लगाते हुए वहाँ जो भी घास, पत्ता, काष्ठ, कचरा, अपवित्र, दुर्गन्धित वस्तु आदि हो, उसे इक्कीस बार भली भांति निकाल कर एक तरफ डलवा देना है। इस प्रकार वह देवी समुद्र की सफाई के लिए नियुक्त की गई ।
देवी का माकंदी पुत्रों को आदेश
(२१)
तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदियदारए एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सक्कवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा तं चेव जाव णिउत्ता । तंजाव अहं देवाणुप्पिया! लवणसमुद्दे जाव एडेमि ताव तुब्भे इहेव पासायवडेंसए सुहं सुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह । जइ णं तुब्भे एयंसि अंतरंसि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे पुरत्थिमिल्लं वणसंडं गच्छेजाह ।
शब्दार्थ - उप्पुया - मनोरंजन हेतु उत्कंठित |
भावार्थ - रत्नद्वीप देवी ने माकंदीपुत्रों से कहाा- देवानुप्रियो ! शक्रेन्द्र के आदेश से लवण समुद्राधिपति सुस्थित देव ने यावत् मुझे लवण समुद्र की सफाई के लिए नियुक्त किया है। मैं
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