Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पुण्डरीक नामक उन्नीसवां अध्ययन - श्रामण्य से वैमुख्य, राज्याभिषेक ३०५ జరిగిందించిందించిందిందreencreencreencreece वह राजा पुंडरीक के पास आई और बोली - देवानुप्रिय! तुम्हारा प्रिय भाई अनगार कंडरीक अशोकवाटिका में, अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वी शिलापट्ट पर विचलित चेता होकर बैठा है यावत् वह आर्तध्यान निमग्न है।
(१८) तए णं (से) पुंडरीए अम्मधाईए एयमहूँ सोच्चा णिसम्म तहेव संभंते समाणे उठाए उट्टेइ २ ता अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो० एवं वयासी - धण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव पव्वइए, अहं णं अधण्णे (३) जाव पव्वइत्तए, तं धण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले।
भावार्थ - धायमाता से यह सुनते ही पुंडरीक हक्का-बक्का रह गया। अपने स्थान से उठा। अंतःपुर परिवार से घिरा हुआ, वह अशोक वाटिका में यावत् जहाँ कंडरीक बैठा था, आया। तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा पूर्वक वंदना कर बोला - देवानुप्रिय! आप धन्य हैं यावत् दुःखमय संसार का त्याग कर आप प्रव्रजित हुए। मैं कितना अभागा हूँ यावत् प्रव्रज्या ग्रहण नहीं कर सका। देवानुप्रिय! आप भाग्यशाली हैं, जीवन को आपने सार्थक बना लिया।
(१६) तए णं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ दोच्चंपि तच्चंपि जाव चिट्ठइ।
- भावार्थ - राजा पुंडरीक द्वारा यों कहे जाने पर कंडरीक चुप रहा। दूसरी बार, तीसरी बार कहे जाने पर भी यावत् वह मौन बैठा रहा। श्वामण्य से वैमुख्य, राज्याभिषेक
(२०) तए णं पुंडरीए कंडरीयं एवं वयासी - अट्ठो भंते! भोगेहिं? हंता अट्ठो।
भावार्थ - 'तब राजा पुंडरीक ने कंडरीक से पूछा - भगवन्! क्या आपका भोगों से प्रयोजन है।
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