Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पुण्डरीक नामक उन्नीसवां अध्ययन - कंडरीक पुनः रोगाक्रांत, कालगत ३०७ -------------¤¤¤
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कंडरीक पुनः रोगाक्रांत, कालगत
(२३)
तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अइजागरिएण य अइभोयणप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणम । तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तंसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला विउला पगाढा जाव दुरहियासां पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहक्कंतीए यावि विहर |
शब्दार्थ - पणीयं प्रणीत - रसाप्लावित, पौष्टिक ।
भावार्थ - तदनंतर रस स्निग्ध, पौष्टिक आहार करते रहने से, भोगासक्ति के कारण अधिक जागने तथा अत्यधिक मात्रा में खाने-पीने के कारण, भोजन का भलीभाँति परिपाक नहीं हुआ । परिणाम स्वरूप राजा कंडरीक के शरीर में एक दिन मध्य रात्रि के समय बहुत ही तीव्र, प्रगाढ यावत् प्रचण्ड, दुःखद, असह्य पित्तज्वर होने के कारण सारा शरीर दाह से आक्रांत हो उठा।
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(२४)
तणं सेकंडरीए राया रज्जे य रट्ठे य अंतेउरे य जाव अज्झोववण्णे अट्टदुहट्टवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसका लट्ठिइयंसि णरयंसि णेरइयत्ताए उववण्णे ।
भावार्थ - वैसा होने पर राजा कंडरीक राज्य, राष्ट्र, अन्तःपुर यावत् राजकीय वैभव इत्यादि में अत्यधिक आसक्त होता हुआ, आर्त्तध्यान में संलग्न हुआ। वह यद्यपि मृत्यु को नहीं चाहता था किंतु जीवित रहना उसके बस की बात नहीं थी । इसलिए वह मृत्यु प्राप्त कर सातवीं नारक भूमि में सर्वोत्कृष्ट (तैंतीस सागरोपम) स्थिति युक्त नारक के रूप में उत्पन्न हुआ।
(२५)
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एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाइए जाव अणुपरियट्टिस्सइ जहाव से कंडरीए राया ।
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