Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
(२६)
एवामेव समणाउसो! जाव पव्वइए समाणे माणुस्सएहि कामभोगेहिं णो सज्जइ णो रज्जइ जाव णो विप्पडिघायमावजइ से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे वंदणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जेत्तिक? परलोए वि य णं णो आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ता(ड)लणाणि य जाव चाउरंतं संसारकंतारं जाव वीईवइस्सइ जहा व से पुंडरीए अणगारे।
भावार्थ - हे आयुष्मन् श्रमणो! जिन्होंने प्रव्रज्या स्वीकार की हो, वे साधु-साध्वी यदि मनुष्य विषयक कामभोगों में आसक्त, रंजित, अनुराग युक्त नहीं होते यावत् वे विप्रतिहतबाधाओं द्वारा प्रभावित नहीं होते, वे इस भव में बहुत से साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के अर्चनीय, वंदनीय, सत्कारणीय सम्माननीय, कल्याणरूप, मंगलरूप, देवोपम, आदरणीय, ज्ञानरूप एवं पर्युपासनीय होते हैं तथा परलोक में भी वे दंड केशोत्पाटनं, तर्जन तथा ताड़न नहीं पाते यावत् चतुर्गतिमय संसार सागर में नहीं भटकतें, जिस तरह राजा पुंडरीक नहीं भटका।
विवेचन - आगम में संयम का फल संवर और तप का फल निर्जरा बताया है (उत्तरा० अ० २६) तदनुसार कण्डरीक जी के भी जब तक संयम तप के भाव रहे तब तक तो संवर निर्जरा रूप तात्कालिक फल हुआ ही है। संयम के साथ शुभ योगों से जिन पुण्य प्रकृतियों का बन्ध किया उनका अशुभभावों में आयुबन्ध होने के कारण आयु के साथ में निषेक नहीं होने से भोगने रूप में नहीं जुड़ने से वे प्रकृतियाँ उदय में नहीं आकर सत्ता में रह गई इसलिए उन्हें दुर्गति में जाना पड़ा।
पुण्डरीकजी के राज्यावस्था में भी लूखे विचार होने से एवं संयम के बाद भी भावना की धारा बहुत अधिक ऊँची होने से तीन दिनों में ही संयम के पर्याय बहुत अधिक बढ़ा लिये। ऊंचे संवर निर्जरा से राज्यावस्था में किये गये पाप कर्मों की निर्जरा करके संयम के साथ के ऊंचे शुभ योगों से ऊंची पुण्य प्रकृतियों का बन्ध करके शुभभावों में आयु का बन्ध करके उन पुण्य प्रकृतियों को आयु के साथ जोड़ देने से सर्वार्थसिद्ध महाविमान में उत्पन्न हुए।
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