Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र EcccccccccccccccccccccesaauccessEEKSakcccccccess - विवेचन - नंद मणिकार ने अपने अष्टमभक्त पौषध के अन्तिम समय में तृषा से पीड़ित होकर पुष्करिणी खुदवाने का विचार किया। इससे पूर्व यह उल्लेख आ चुका है कि वह साधुओं के दर्शन न करने, उनका समागम न करने एवं धर्मोपदेश नहीं सुनने आदि के कारण सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वी बन गया था। इस वर्णन से किसी को ऐसा भ्रम हो सकता है कि पुष्करिणी. खुदवाना तथा औषधशाला आदि की स्थापना करना-करवाना मिथ्यादृष्टि का कार्य है-सम्यग्दृष्टि का नहीं, अन्यथा उसके मिथ्यादृष्टि हो जाने का उल्लेख करने की क्या आवश्यकता थी?
किन्तु इस प्रकार का निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है, यथार्थ भी नहीं है। यह तो नन्द के जीवन में घटित एक घटना का उल्लेख मात्र है। पौषध में एक नियम आरम्भ-समारम्भ का. परित्याग करना भी सम्मिलित है। नन्द श्रेष्ठी को पौषध की अवस्था में आरम्भ-समारम्भ करने का विचार-चिन्तन निश्चय नहीं करना चाहिए था। किन्तु उसने ऐसा किया और उसकी न आलोचना की, न प्रायश्चित्त किया। उसने एक त्याज्य कर्म को-पौषध अवस्था में आरम्भ करने को अत्याज्य समझा, यह विपरीत समझ उसके मिथ्यादृष्टि होने का लक्षण है, परन्तु कुआं, बावड़ी आदि खुदवाना या दानशाला आदि परोपकार के कार्य मिथ्यादृष्टि के कार्य नहीं समझने चाहिए। ‘रायपसेणिय' सूत्र में बतलाया गया है राजा प्रदेशी जब अपने घोर अधार्मिक जीवन में परिवर्तन करके केशीकुमार श्रमण द्वारा धर्मबोध प्राप्त करके धर्मनिष्ठ बन जाता है तब वह अपनी सम्पत्ति के चार विभाग करता है-एक सैन्य सम्बन्धी व्यय के लिए, दूसरा कोठार-भंडार में जमा करने के लिए, तीसरा अन्तःपुर-परिवार के व्यय के लिए और चौथा सार्वजनिक हित-परोपकार के लिए। उससे वह दानशाला आदि की स्थापना करता है।
नन्द श्लेष्ठी की प्रशंसा
(१६) तए णं णंदा पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य पीयमाणो य पाणियं च संवहमाणो य अण्णमण्णं एवं वयासी-धण्णे णं देवाणुप्पिया! णंदे मणियार सेट्ठी कयत्थे जाव जम्म जीवियफले जस्स णं इमेयारूवा गंदा पोक्खरिणी चाउक्कोणा जाव पडिरूवा जस्स णं पुरथिमिल्ले तं चेव सव्वं चउसु वि वणसंडेसु जाव रायगिह विणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सयणेसु य सण्णिसण्णो य संतुयहो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरइ। तं धण्णे कयत्थे (कयलक्खणे)
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