Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - विवाह की शर्त
१५७ SoccccccccmarwacccccccccccccccEGOREOGeococccccces तं जइ णं देवाणुप्पिया! सागरदारए मम घरजामाउए भवइ तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सूमालियं दलयामि।
शब्दार्थ - घरजामाउए - घर जमाई।
भावार्थ - तब सागरदत्त ने जिनदत्त से कहा - देवानुप्रिय! सुकुमालिका मेरी इकलौती पुत्री है, वह मुझे बहुत ही प्रिय है यावत् अधिक क्या कहूँ, उसका नाम श्रवण मात्र ही सुखद है। इसलिए मैं अपनी पुत्री सुकुमालिका का क्षण भर के लिए भी वियोग नहीं चाहता। यदि आपका पुत्र सागर घर जमाई हो जाए तो मैं उसके लिए अपनी कन्या दे दूं।
(४३) तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सागरदारगं सद्दावेइ २ ता एवं वयासी - एवं खलु पुत्ता। सागरदत्ते स० मम एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया! सूमालिया दारिया इट्टा तं चेव, तं जड़ णं सागरदारए मम घर जामाउए भवइ ता दलयामि। तए णं से सागरए दारए जिणदत्तेणं स० एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए।
भावार्थ - सार्थवाह सागरदत्त द्वारा यों कहे जाने पर जिनदत्त सार्थवाह अपने घर आया। वहाँ आकर अपने पुत्र सागर को बुलाया और कहा - सार्थवाह सागरदत्त ने मुझे ऐसा कहा है कि पुत्री सुकुमालिका मुझे बहुत प्रिय है, इसलिए यदि सागर मेरा घर जमाई हो जाय तो मैं उसे सुकुमालिका भार्या रूप में दे दूं। सार्थवाह जिनदत्त द्वारा यों कहे जाने पर उसका पुत्र सागर मौन रहा।
(४४) तए णं जिणदत्ते सत्थवाहे अण्णया कयाइ सोहणंसितिहिकरणे विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ २ त्ता मित्तणाई आमंतेइ जाव सम्माणेत्ता सागरं दारगं हाय जाव सव्वालंकार विभूसियं करेइ २ ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहावेइ २ त्ता मित्तणाइ जाव संपरिवुडे सव्विड्ढीए सयाओ गिहाओ णिग्गच्छइ २ त्ता चंपाणयरी मज्झंमज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीयाओ पच्चोरुहइ ३ त्ता सागरं दारगं सागरदत्तस्स स० उवणेइ।
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