Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सुसुमा नामक अट्ठारहवां अध्ययन - राजगृह आगमन
२६३
' शब्दार्थ - महेइ - घिसा रगड़ा, पाडेइ - उत्पन्न की, संधुक्खेइ - फूंक मार कर तेज किया, पज्जालेइ - प्रज्वलित की।
भावार्थ - धन्य सार्थवाह के इस कथन को पांचों पुत्रों ने स्वीकार किया। धन्य सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के साथ अरणि काष्ठ तैयार किया। फिर सरकंडे काष्ठ को लेकर उसे अरणिकाष्ठ पर घिसा, अग्नि प्रज्वलित की। उसे फूंक देकर धुकाया। उस पर लकड़ियाँ रखी। अग्नि प्रज्वलित हो उठी। उस पर पुत्री सुसमा के मांस को पकाया, मांस-रक्त का आहार किया।
राजगृह आगमन
(४१) तेणं आहारेणं अवथद्धा समाणा रायगिहं णयरिं संपत्ता मित्तणाइणियग० अभिसमण्णागया तस्स य विउलस्स धण कणगरयण जाव आभागी जाया (वि होत्था)। तए णं से धण्णे सत्थवाहे सुंसुमाए दारियाए बहूई लोइयाइं जाव विगयसोए जाए यावि होत्था। . भावार्थ - मांस-शोणित के आहार से वे सब स्थिर, आश्वस्त हुए। राजगृह नगरी में आए। मित्र, जातीयजन, पारिवारिक, संबंधी आदि से मिले यावत् विपुल रत्न, स्वर्ण यावत् संपत्ति के भागी बने। ...फिर सार्थवाह ने अपनी पुत्री सुसुमा के बहुत से लौकिक यावत् मरणोपरांत किए जाने वाले कार्य किए यावत् समय बीतने पर वह शोक रहित हुआ।
(४२) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेइए समोसढे (से) तए णं धण्णे सत्थवाहे संपत्ते धम्मं सोचा पव्वइए एक्कारसंगवी मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उववण्णो महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।
भावार्थ - उस काल, उस समय में भगवान् महावीर स्वामी का गुणशील चैत्य में पदार्पण हुआ। धन्य सार्थवाह वंदन, नमन हेतु उनकी सेवामें आया। उनसे धर्म सुना, प्रव्रजित हुआ, ग्यारह अंगों का वेत्ता बना। एकमासिक संलेखना के साथ अनशन पूर्वक प्राण त्याग
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