Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - द्रौपदी पर कुपित
. २०७
पांचों पाण्डवों ने कच्छुल्ल नारद का आदर-सत्कार किया यावत् सभक्ति उनके सान्निध्य में स्थित हुए।
(१४२) तए णं सा दोवई देवी कच्छुल्लणारयं अस्संजयं अविरयं अप्पडिहय पच्चक्खायपावकम्मं - त्तिकटु णो आढाइ णो परियाणइ णो अब्भुढेइ णो पज्जुवासइ।
भावार्थ - द्रौपदी देवी ने जब यह देखा कच्छुल्ल नारद असंयती है, अविरत है। न इसने पूर्वकृत पाप कर्मों का प्रायश्चित्त और न वर्तमान में प्रत्याख्यान ही किया है। यह सोचकर न उसका आदर किया, न उसके आगमन को महत्त्व दिया और न खड़ी हुई और न पर्युपासना ही की।
· द्रौपदी पर कुपित
(१४३) तए णं तस्स कच्छुल्लणारयस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - अहो णं दोवई देवी रूवेण य जाव लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अणुब(वत्थ)द्धा समाणी ममं णो आढाइ जाव णो पजुवासइ। तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करित्तए - त्तिकट्ठ एवं संपेहेइ २ त्ता पंडुय रायं आपुच्छइ २त्ता उप्पयणिं विज्जं आवाहेइ २ त्ता ताए उक्किट्ठाए जाव विज्जाहरगईए लवणसमुई मज्झमझेणं पुरत्थाभिमुहे वीइवइउं पयत्ते यावि होत्था।
शब्दार्थ - विप्पियं - विप्रिय-अनिष्ट।
भावार्थ - तब कच्छुल्ल नारद के मन में ऐसा चिंतन, विचार, भाव संकल्प उत्पन्न हुआ-यह द्रौपदी देवी रूप यावत् यौवन से युक्त है। पाँचों पांडवों के साथ स्नेहाबद्ध, सुख भोगासक्त है। इससे इसको अभिमान हो गया है, इसलिए इसने न तो मेरा सादर किया और न मेरी पर्युपासना ही की। अतः यही अच्छा होगा, मैं इसका अनिष्ट करूँ। यों उन्होंने मन ही मन विचार किया। पांडु राजा से विदा होने की अनुमति लेकर उन्होंने उत्पतनी विद्या का आह्वान किया और उत्कृष्ट यावत् विद्याधर गति से लवण समुद्र के बीचोंबीच होते हुए पूर्व दिशा की ओर चल पड़े।
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org