Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र saceaeKIGGERICERSECREEKRICICKOREGIOCrackaccccccccccccck,
नारद बोले - जंबूद्वीप में, भारत वर्ष में, हस्तिनापुर में राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा, राजा पाण्डु की पुत्रवधू, पाँच पांडवों की भार्या रानी द्रौपदी रूप यावत् दैहिक, सौन्दर्य, लावण्य में अत्यंत उत्कृष्ट है।
द्रौपदी देवी के पैर के कटे हुए अंगूठे के सौंवे भाग जितना भी तुम्हारे अंतःपुर की रानियों का सौंदर्य नहीं है। यों कह कर नारद ने पद्मनाभ से विदा-ली यावत् गगन मार्ग से प्रस्थान कर गए।
(१४६) तए णं से पउमणाभे राया कच्छुल्लणारयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म दोवईए देवीए रूवे य ३ मुच्छिए गढिए लुद्धे (गिद्धे) अज्झोववण्णे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पोसहसालं जाव पुव्वसंगइयं देवं एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया! जंबूद्दीवे २ भारहे वासे हत्थिणाउरे जाव उक्किट्ठसरीरा, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! दोवई देविं इहमाणियं।
भावार्थ - राजा पद्मनाभ कच्छुल्लनारद से यों सुनकर देवी द्रौपदी के लावण्य में मूर्च्छित, गृद्ध एवं लुब्ध हो गया। वह उसके मन में समा गई। वह अपनी पौषधशाला में आया यावत् उसने अपने पूर्वभव के साथी देव का स्मरण किया। वह देव वहाँ आविर्भूत (प्रकट) हुआ। राजा ने देव से कहा - देवानुप्रिय! जंबूद्वीप में, भारतवर्ष में, हस्तिनापुर में यावत् परम रूप लावण्य युक्त रानी द्रौपदी देवी है। मैं चाहता हूँ आप उसे यहां ले आएं।
... (१५०) तए णं पुव्वसंगइए देवे पउमणाभं एवं वयासी - णो खलु देवाणुप्पिया! एय भूयं वा भव्वं वा भविस्सं वा जण्णं दोवई देवी पंच पंडवे मोत्तूण अण्णेणं पुरिसेणं सद्धिं ओरालाइं जाव विहरिस्सइ, तहावि य णं अहं तव पियट्टयाए दोवई देवि इहं हव्वमाणेमि-त्तिकट्ठ पउमणाभं आपुच्छइ २ ता ताए उक्किट्ठाए जाव लवणसमुई मज्झमझेणं जेणेव हत्थिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
शब्दार्थ - पियट्ठयाए - प्रिय कार्य करने हेतु। भावार्थ - तब पूर्वभव के साथी देव ने राजा पद्मनाभ से कहा - देवानुप्रिय! न कभी ऐसा
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