Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन स्वयंवर का शुभारंभ
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“जिण पडिमाणं अच्चणं करेइति एकस्या वाचना मेतावदेव दृश्यते वाचनान्तरेतु "
आदि ।
टीकाकार महाशय ने केवल बारह अक्षर वाले पाठ को ही मूल में स्थान देकर बाकी के लिए वाचनान्तर में होना लिखकर टीका में ही रखते हैं, मूल में नहीं, इन सभी संदर्भों से स्पष्ट ध्वनित है कि " नमोत्थुणं" शब्द मूर्तिपूजा के रंग में रंगे हुए महाशयों ने बाद में मूल पाठ में प्रक्षिप्त किया है। “नमोत्थु " शब्द का इस प्रकरण से कोई सम्बन्ध ही नहीं है।
उक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि द्रौपदी विवाह से पूर्व निदानकृत थी । अतएव उस निदान के फलीभूत होने के लिए स्वयंवर मण्डप में जाने से पूर्व स्नानादि कर " कामदेव की प्रतिमा" की अर्चना करने गई थी, न कि तीर्थंकर प्रतिमा की ।
(११)
तए णं तं दोवई - रा० अंतेउरियाओ सव्वालंकार विभूसियं करेंति किं ते? वरपायपत्तणेउरा जाव चेडिया - चक्कवाल - मयहरग-विंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण साला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूह | शब्दार्थ - मयहरग महत्तरक-प्रौढ, किड्डावियाए - क्रीड़ा कराने वाली, लेहिया
लेखिका ।
भावार्थ तदनंतर अंतःपुर की दासियों ने उत्तम राजकन्या द्रौपदी को सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। उसके पैरों में उत्तम नुपूर पहनाए । यावत् द्रौपदी दासियों और प्रौढ सेविकाओं के समूह से घिरी हुई अंतःपुर से निकली। वह बहिर्वर्ती सभा भवन में जहाँ चातुर्घण्ट अश्वरथ था आई । आकर क्रीड़ाकारिणी धाय तथा राजपरिवार का इतिवृत लिखने वाली दासियों के साथ चातुर्घण्ट अश्वरथ पर सवार हुई ।
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(१२०).
तणं से धट्ठज्जुणे कुमारे दोवईए रायवरकण्णाए सारत्थं करेइ । तए णं सा दोवई २ कंपिल्लपुरं यरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता रहं ठवेइ रहाओ पच्चोरुहइ २ ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं सयंवरमंडवं
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