Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन स्वयंवर का शुभारंभ
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पाण्डु पुत्र के गले में वरमाला डाल कर पांचों भाईयों की पत्नी बनी। यह द्रौपदी का संक्षिप्त कथानक है। इसमें केवल "जिन प्रतिमा” की अर्चना शब्द को लेकर मूर्ति पूजक बंधु बिना कुछ सोचे समझे “ मूर्ति पूजा" सिद्ध करते हैं। इस संदर्भ उनका कहना है कि १. द्रौपदी श्राविका थी २. द्रौपदी की पूजी गई प्रतिमा तीर्थंकर की थी ३. द्रौपदी ने नमोत्थुणं से स्तुति की थी। इन तीनों युक्तियों पर अब हमें क्रमशः चिंतन करना है -
१. क्या द्रौपदी विवाह के समय श्राविका थी ? - द्रौपदी के सुकुमालिका आर्यिका के भव निदान ( नियाणा) और उससे होने वाले फल विपाक पर यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचारणा की जाय तो स्पष्ट होता है कि विवाह के पूर्व उसमें श्राविका होने की योग्यता थी ही नहीं । क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र के १० वें अध्ययन से स्पष्ट है कि निदान करने वाले जीव का जब तक निदान पूर्ण नहीं हो जाय (फल नहीं मिल जाय) तब तक वह सम्यक्त्व से भी वंचित रहता है अर्थात् मिथ्यात्वी रहता है। अतएव द्रौपदी विवाह के पूर्व श्राविका नहीं थी बल्कि मिथ्यात्वी थी । विवाह के समय आगमकार स्वयं द्रौपदी के लिए लिखते हैं “पुव्वकय नियाणेण चोइजमाणि” अर्थात् पूर्वकृत निदान से प्रेरित । इसके सिवाय समकित सार के रचयिता श्रीमद् जेष्ठमलजी म. सा. अपने इसी ग्रंथ में लिखते हैं कि “ओघ नियुक्ति सूत्र" की आचार्य श्री गंध हस्तिकृत टीका में द्रौपदी को एक सन्तान प्राप्ति के बाद सम्यक्त्व प्राप्त होना बतलाया है।” इससे सिद्ध होता है किं विवाह के पश्चात् जब द्रौपदी का पूर्वकृत निदान पूर्ण हो जाता है, तब वह जिनोपासिका होने के योग्य बनती है।
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२. क्या द्रौपदी ने तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा की थी ? जब यह स्पष्ट हो चुका है कि पाणिग्रहण के समय द्रौपदी सम्यक्त्व से रहित थी अर्थात् मिथ्यात्वी थी, तब यह समझना एकदम सहज हो गया कि उसके द्वारा पूजी गई मूर्ति तीर्थंकर की नहीं थी, क्योंकि मूर्तिपूजक बन्धुओं के मतानुसार तीर्थंकर को देव मानकर तो सम्यक्त्वी ही वन्दते पूजते हैं, तब प्रश्न होता है कि द्रौपदी द्वारा पूजी हुई मूर्ति को “जिनप्रतिमा" जब सूत्र में ही बताया गया है तो फिर इस जिन प्रतिमा को तीर्थंकर की प्रतिमा नहीं माना जाय तो किसकी माना जाय? इसके समाधान में कहा जाता है कि “जिन" शब्द के कई अर्थ होते हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य के हेमी नाम माला में एक यह भी अर्थ किया है कि "कंदर्पोपि जिनोश्चैव अर्थात् कदर्प कामदेव को भी "जिन" कहा हैं और यह अर्थ इस प्रकरण में बिलकुल उपयुक्त है। क्योंकि द्रौपदी को निदान के प्रभाव से कामदेव ही अधिक रुच रहा था। इसके अलावा विजय गच्छ के श्री गुणसागर
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