Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
*****************
xxxx
देवाणुप्पिया! सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उट्ठेइ २ ता वासघर दुवारं अवगुण्डइ जाव पडिगए। तए णं (हं) तओ (अहं) मुहुत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि २ गए णं से सागरए - तिकट्टु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायामि ।
१६२
शब्दार्थ - अवगुण्ड - खोला ।
भावार्थ - सुकुमालिका ने दासी से कहा- देवानुप्रिये ! सार्थवाह पुत्र सागर मुझे ग निद्रा में देखकर उठा, शयनगृह के द्वार को खोला यावत् चला गया। अतएव इससे मेरा मनः संकल्प ध्वस्त हो गया यावत् उसी चिन्ता में आर्त्तध्यान में संलग्न हूँ।
(५४)
तं णं सा दास चेडी सूमालियाए दारियाए एयमट्ठे सोच्चा जेणेव सागरदत्ते सत्थ० तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सागरदत्तस्स एयमट्ठ णिवेदे ।
भावार्थ वह दासी सुकुमालिका का यह कथन सुनकर सागरदत्त के पास पहुँची और उसे इस प्रकार निवेदित किया ।
-
(५५)
तणं से सागरदत्ते दास चेडीए अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते ० जेणेव जिणदत्त सत्थवाह गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता जिणदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी- किण्णं देवाणुप्पिया! एवं जुत्तं वा. पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा जण्णं सागरदारए सूमालियं दारियं अदिट्ठदोसं प्रइवयं विप्पजहाय इहमागओ ? बहूहिं खिज्जणियाहि य रुंटणियाहि य उवालभइ ।
शब्दार्थ - अदिट्ठदोसं - सर्वथा निर्दोष, रुंटणियाहि - रूंधे हुए गले से ।
भावार्थ - सुकुमालिका का कथन सुनकर दासी उसके पिता सागरदत्त के पास गई और उसे वह बात बतलाई। सार्थवाह सागरदत्त दासी को कथन सुनकर बहुत ही क्रुद्ध और रुष्ट हुआ। वह जिनदत्त सार्थवाह के पास आया और उससे यों बोला - देवानुप्रिय ! क्या यह उचित है कि निर्दोष एवं पतिव्रता मेरी पुत्री सुकुमालिका को तुम्हारा पुत्र छोड़ भागा। क्या यह न्यायसंगत एवं कुलानुरूप है? उसने रूंधे हुए गले से बड़े ही खिन्नतापूर्ण वचनों से उपालंभ दिया ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org