Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
८६
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र saocomcccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccc - भावार्थ - नंदा पुष्करिणी में स्नान करते हुए, उसका जल पीते हुए उसमे से जल ले जाते हुए लोग कहते - देवानुप्रियो! नंद मणिकार धन्य है जिसने चतुष्कोण यावत् अति सुंदर पुष्करिणी का निर्माण करवाया। जिसके पूर्व दिशावर्ती वन खंड में अनेक खंभों पर. अवस्थित चित्र सभा है। उसी प्रकार (इसके सहित) चारों सभाएं हैं यावत् नंद ने इन सबका निर्माण कर मनुष्य जन्म और जीवन का फल प्राप्त कर लिया।
(२५) तए णं तस्स ददुरस्स तं अभिक्खणं २ बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अज्झथिए० समुप्पजित्था-से कहिं मण्णे मए इमेयारूवे सद्दे णिसंतपुव्वे तिकटु सुभेणं परिणामेणं जाव जाईसरणे समुप्पण्णे पुव्ववजाई सम्म समागच्छन्।
भावार्थ - बार-बार बहुत से लोगों से यह बात सुनकर उस मेंढक के मन में ऐसा विचार . यावत् मनोभाव उत्पन्न हुआ। यों सोचते हुए शुभ परिणाम यावत् कार्मिक क्षयोपशम से उसे जाति स्मरण ज्ञान हो गया-उसे अपना पूर्वभव भलीभांति स्मरण हो आया। श्रावक धर्म का अन्तः स्वीकार
(२६) तए णं तस्स ददुरस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए०-एवं खलु अहं इहेव रायगिहे णयरे णंदे णाम मणियारे अड्डे०। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे इह समोसढे। तए णं समणस्स ३ अंतिए पंचाणुव्वइए सत्त सिक्खावइए जाव पडिवण्णे। तए णं अहं अण्णया कयाइ असाहुदसणेण य जाव मिच्छत्तं विप्पडिवण्णे तए णं अहं अण्णया कयाई गिम्हे काल समयंसि जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरामिएवं जहेव चिता आपुच्छणा गंदा पुक्खरिणी वणसंडा सहाओ तं चेव सव्वं जाण णंदाए पोक्ख० ददुरत्ताए उववण्णे। तं अहो णं अहमं अहण्णे अपुण्णे अकयपुण्णे णिग्गंथाओ पावयणाओ णटे भट्ठे परिन्भटे। तं सेयं खलु ममं सयमेव पुव्व पडिवण्णाइं पंचाणुव्वयाइं० उवसंपिजत्ताणं विहरित्तए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org