Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SoccaacGOOGGECOGGDacococccccccccccccccccccceer विशेष, कम्मणजोए - कामणयोग-उच्चाट-आदि हेतु प्रयोग में किया जाने वाला दूषित पदार्थ मिश्रित भैषज योग, हियउड्डावणे - चित्त एवं हृदय को आकर्षित करने वाली वस्तुओं के प्रयोग, काउड्डावणे- शरीर को आकर्षित करने वाले, आभिओगिए - पराभवकारी प्रयोग, वसीकरणे - वश में करने के प्रयोग, कोउयकम्मे - सौभाग्यवर्द्धक स्नानादि कृत्य, भूइकम्मेअभिमंत्रित भस्म प्रक्षेपण रूप प्रयोग, सिलिया- शिलिका-तृण विरोध, उवलद्धपुव्वे-पूर्व प्राप्त।
भावार्थ - आर्याओ! मैं पहले तेतली पुत्र को इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोहर थी। अब मैं अनिष्ट, अप्रिय, अकांत, अमनोहर हो गई हूँ। तेतली पुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, फिर मुझे देखने या सुख भोगने की तो बात ही क्या? आर्याओ! आप अत्यधिक शिक्षित, बहुपंडित एवं ज्ञानयुक्त हैं। बहुत से गांव, नगर यावत् बहुत से स्थानों में भ्रमण करती रही हैं। राजा, विशिष्ट वैभवयुक्त पुरुष यावत् सार्थवाह के घरों में प्रविष्ट होती रही हैं। .
6. आर्याओ! बतलाएं कही कोई ऐसा चूर्ण योग, मंत्रयोग, कामण योग, चित्ताकर्षक, देहाकर्षक पराभवकारी, वशीकरण, सौभाग्य वर्द्धक योग या कोई अभिमंत्रित भस्म प्रक्षेप, मूलकंद, छाल, लता आदि से बनी औषधि विशेष, गुटिका, जड़ी-बूटी आदि कोई आपको पूर्वं लब्ध है, . जिसके प्रयोग से तेतलीपुत्र के लिए मैं पुनः इष्ट, प्रिय, कांत, मनोज्ञ मनोहर हो जाऊँ। ..
(३१)
तए णं ताओ अजाओ पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दोवि कण्णे ठाइति २ त्ता पोटिलं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ णिग्गंथीओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ। णो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारं कण्णेहि वि णिसामेत्तए किमंग पुण उवदिसित्तए वा आयरित्तए वा? अम्हे णं तव देवाणुप्पिया! विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म पडिकहिज्जाओ।
शब्दार्थ - एयप्पयारं - इस प्रकार के।
भावार्थ - पोट्टिला द्वारा यों कहे जाने पर उन साध्वियों ने अपने दोनों कान बंद कर लिए और पोट्टिला से बोली - देवानुप्रिये! हम श्रमणियाँ हैं, निग्रन्थिनियाँ हैं। गुप्ति समिति यावत् ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने वाली हैं। हमें इस प्रकार का वचन कानों से सुनना भी नहीं कल्पता। फिर ऐसा उपदेश देने या आचरण करने की तो बात ही क्या? देवानुप्रिये! हम तुम्हें सर्वज्ञ प्ररूपित उत्तम धर्म का उपदेश कर सकती हैं।
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