Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१३२
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Exceesssssssssssssssssssssssssssss
(११) .. तत्थ णं अत्थेगइया पुरिसा धणस्स सत्थवाहस्स एयमटुं सद्दहंति जाव रोयंति एयमटुं सद्दहमाणा ३ तेसिं गंदि फलाणं दूरं दूरेणं परिहरमाणा २ अण्णेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव वीसमंति। तेसि णं आवाए णो भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणा २ सुहरूवत्ताए ५ भुज्जो २ परिणमंति।
शब्दार्थ - आवाए - खाने के समय।
भावार्थ - उनमें से कई पुरुषों ने धन्य सार्थवाह के इस कथन पर श्रद्धा एवं विश्वास किया तथा रुचिपूर्वक उसे स्वीकार किया। यों हृदय में श्रद्धा लिए हुए उन्होंने नंदी फलों को दूर से ही त्याग दिया तथा दूसरे वृक्षों के बीज यावत् मूल का आहार किया, जो खाने के समय स्वादिष्ट प्रतीत नहीं हुए। तदनंतर ज्यों-ज्यों उनका आमाशय में परिपाक हुआ, वे सुखप्रद प्रतीत होने लगे।
(१२) एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथो वा २ जाव पंचसु कामगुणेसु णो सज्जेइ णो रज्जेइ से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिज्जे परलोए णो . आगच्छइ जाव वीईवइस्सइ-जहा व ते पुरिसा।
शब्दार्थ - कामगुणेसु - इन्द्रियभोगों में।
भावार्थ - हे आयुष्मन् श्रमणो! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी यावत् प्रव्रजित होकर, पाँच इन्द्रिय भोगों में आसक्त नहीं होते, अनुरक्त नहीं होते वे इस भव में बहुत से श्रमण-श्रमणियों यावत् श्रावक-श्राविकाओं के लिए अर्चनीय, पूजनीय होते हैं उन्हें परलोक में भी दुःख नहीं होता यावत् संसार सागर में नहीं भटकते, जिस प्रकार पूर्ववर्णित पुरुष नहीं भटके।
(१३) तत्थ णं जे से अप्पेगइया पुरिसा धणस्स एयममु णो सहहंति ३ धणस्स एयमढे असद्दहमाणा ३ जेणेव ते णंदिफला तेणेव उवागच्छंति २ ता तेसि णंदिफलाणं मूलाणि य जाव वीसमंति तेसि णं आवाए भइए भवइ तओ पच्छा परिणममाणा जाव ववरोवेंति।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org