Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन *******************▪▪▪▪▪▪▪▪*********
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नागश्री की भर्त्सना
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वैसा कर उन्होंने श्रमण निर्ग्रथों एवं निर्ग्रन्थिनियों को बुलाया। उनसे कहा आर्यो! मेरा अंतेवासी धर्मरुचि अनगार स्वभाव से ही बड़ा भद्र यावत् विनीत था। वह निरंतर मासखमण तपः कर्म में लगा था यावत् वह नागश्री ब्राह्मणी के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट हुआ । नागश्री ने उसे खारे तूंबे का व्यंजन भिक्षा में दिया यावत् वह भिक्षा लेकर निकला यावत् उसे पर्याप्त आहार मानते हुए, वह अन्यंत्र नहीं गया इत्यादि सारा वृत्तांत धर्मघोष ने निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को बताया ।
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(२३)
सेणं धम्मरुई अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता आलोइय पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढं सोहम्म जाव सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे । तत्थ णं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं धम्मरुइस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । से णं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ।
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भावार्थ - धर्मघोष अनगार ने यों सारा वृत्तांत बतलाते हुए कहा धर्मरुचि अनगार ने इस प्रकार बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन किया अंततः उसने आलोचना - प्रतिलेखना कर समाधिमरण प्राप्त किया ।
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ऊपर सौधर्म यावत् देवलोकों को लांघ कर वह सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ सभी देवों की जघन्य उत्कृष्ट भेद रहित तेतीस सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त की गई है। धर्मरुचि देव की भी वहाँ इतनी ही स्थिति बतलाई गई है। वह धर्मरुचि देव आयु क्षय होने पर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा तथा सिद्ध होगा ।
नागश्री की भर्त्सना
(२४)
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तं धिरत्थु णं अज्जो ! णागसिरीए माहणीए अधण्णाए अपुण्णाए जाव बिोलियाए जाए णं तहारूवे साहू साहुरूवे धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव गाढेणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए ।
भावार्थ - आर्यो! इस अधन्या, अपुण्या यावत् निम्बोली के समान कटु नागश्री ब्राह्मणी
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