Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दावद्रव नामक ग्यारहवां अध्ययन
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देशाधक का विवेचन
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शब्दार्थ - अहियासेइ - अध्यास्ते-निर्जरा की भावना से सहन करता है, अण्णउत्थियाणंअन्यतीर्थिकों - परमत वादियों के ।
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भावार्थ हे आयुष्मान् श्रमणो! इसी प्रकार जो साधु-साध्वी यावत् आचार्य उपाध्याय से प्रव्रजित होकर बहुत से साधुओं-साध्वियों श्रावकों एवं श्राविकाओं के प्रतिकूल वचनों को यावत् क्षमा भाव एवं निर्जरा भाव से सहता है किन्तु अन्यतीर्थिक साधुओं तथा गृहस्थों के वचन को यावत् नहीं सहता, वह मेरे द्वारा देश विराधक कहा गया है।
देशाराधक का विवेचन (६)
जया णं सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा मिलायमाणा चिट्ठति । अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया जाव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति ।
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भावार्थ - हे आयुष्मान् श्रमणो! समुद्र की ओर से आने वाली पूर्वी और पश्चिमी हल्की मंद हवा चलती है और प्रचण्ड हवा चलती है, तब बहुत से दावद्रव वृक्ष जीर्ण और निष्पन्न हो जाते हैं, यावत् म्लान हो जाते हैं- मुरझाए हुए खड़े रहते हैं किंतु कोई-कोई दावद्रव वृक्ष पत्र, पुष्प यावत् फलयुक्त रहते हुए शोभायमान होते रहते हैं।
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एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं णिग्गंथो वा २ जाव पव्वइए समाणे बहूणं अण्णउत्थियगिहत्थाणं सम्मं सहइ बहूणं समणाणं ४ णो सम्मं सहइ एस णं मए पुरिसे देसाराह पण्णत्ते ।
भावार्थ - हे आयुष्मान् श्रमणो! इस प्रकार जो साधु या साध्वी यावत् आचार्य उपाध्याय के पास दीक्षित होकर बहुत से अन्यतीर्थिक साधुओं तथा गृहस्थों के प्रतिकूल वचन सम्यक् सहन करता है, तथा बहुत से श्रमणों - श्रमणियों - श्रावकों-श्राविकाओं के प्रतिकूल वचन सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता, वैसे पुरुष को मैंने देशाराधक प्रज्ञापित किया है- बतलाया है।
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