Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उदकज्ञात नामक बारहवां अध्ययन - पुद्गलों की परिणमनशीलता
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भावार्थ - तब राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा-सुबुद्धि! यह खाई का पानी वर्ण आदि की दृष्टि से बड़ा ही अमनोज्ञ है। यह इतना दुर्गंधित है कि मरे हुए साँप यावत् गाय आदि के मृत शरीर से भी अधिक घृणास्पद है।
(१३) तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-अहो णं तं चेव। तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे एवं वयासी-णो खलु सामी! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि.केइ विम्हए। एवं . खलु सामी ! सुब्भिसद्दा वि पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति तं चेव जाव पओगवीससापरिणया वि य णं सामी! पोग्गला पण्णत्ता। ... भावार्थ - राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से दूसरी बार-तीसरी बार भी ऐसा ही कहा। राजा द्वारा दो-तीन बार ऐसा कहे जाने पर सुबुद्धि बोला-स्वामी! इस खाई के पानी के संबंध में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि शुभ शब्द पुद्गल अशुभ शब्द पुद्गलों में परिणत हो जाते हैं यावत् यह पुद्गल परिणमन प्रयोग और स्वभाव-दोनों ही प्रकार से होता है, ऐसा कहा गया है।
(१४) - तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिया! अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूहि य असब्भावभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेण य वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे विहराहि।
शब्दार्थ - असम्भावभावणाहिं - असद्भावोद्भावना द्वारा-असत्-अविद्यमान को, सत्विद्यमान के रूप में प्रकट कर, मिच्छत्ताभिणिवेसेण - मिथ्याभिनिवेश-दुराग्रह, धुग्गाहेमाणे - समझाते हुए। __ भावार्थ - राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से कहा - देवानुप्रिय! अपने आपको तथा औरों को तुम बहुत प्रकार से असत् को सत् के रूप में प्रतिपादित करते हुए मिथ्या दुराग्रहअभिनिवेश में मत डालो, ऐसी असत् प्ररूपणा मत करो।
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