Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र sacccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccce .. शब्दार्थ - तण्हाए - तृष्णा से, छुहाए - भूख से, संवहइ - ले जाते हैं, वत्थुपाढगरोइयंसि - वास्तु शास्त्रज्ञों द्वारा चयनित, खणावेत्तए - खुदवाऊँ।
. भावार्थ - मणिकार श्रेष्ठी नंद ने एक बार ग्रीष्मकाल के समय जब ज्येष्ठा नक्षत्र का चन्द्र के साथ पूर्णमासी को मेल होता है, तब (ज्येष्ठ मास में) तेले की तपस्या स्वीकार की। वैसा कर वह पौषधशाला में, पौषध धारण कर स्थित हुआ।
तत्पश्चात् जब उसका तेले का तप पूर्ण हो रहा था, तब तृष्णा और क्षुधा से पीड़ित हुए उसके मन में ऐसा विचार यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ - वे ऐश्वर्यशाली यावत् संपन्न पुरुष धन्य हैं, जिन्होंने राजगृह नगर के बाहर बहुत सी बावड़ियों, पुष्करणियों यावत् अनेकानेक सरोदरों का निर्माण किया। जहाँ बहुत से लोग जल पीते हैं, स्नान करते हैं एवं जल ले जाते हैं। यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा कि मैं कल प्रातःकाल होने पर राजा श्रेणिक से अनुज्ञा प्राप्त कर, राजगृह नगर के उत्तर पूर्व दिशा भाग में वैभार पर्वत से न बहुत दूर और न समीप वास्तुशास्त्रज्ञों द्वारा
चयनित भूमि भाग में, नंद पुष्करणी का खनन, निर्माण करवाऊँ। . इस प्रकार वह सोचने लगा।
(१०) संपेहेइत्ता कल्लं पाउन्भाए जाव पोसहं पारेइ २ ता पहाए कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिवुडे महत्थं जाव पाहुडं राया गिहं गेण्हइ २ ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ जाव पाहुडं उवट्ठवेइ २ त्ता एवं वयासी-इच्छामि णं सामी! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया!
भावार्थ - यों विचार कर उसने दूसरे दिन प्रातःकाल होने पर यावत् सूर्य की रश्मियों के जाज्वल्यमान होने पर पौषध पारा। तदनंतर उसने स्नान किया, नित्य नैमित्तिक मांगलिक कृत्य किए। मित्रों, जातीयजनों आदि से घिरा हुआ यावत् राजोचित बहुमूल्य उपहार राजा को भेंट किये एवं निवेदन किया-स्वामी! मैं आपसे आज्ञा प्राप्त कर राजगृह नगर के बाहर यावत् सर्व साधन संपन्न पुष्करिणी बनाना चाहता हूँ। राजा बोला - देवानुप्रिय! जिससे तुम्हें सुख उपजेजैसा तुम चाह रहे हो, करो।
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