Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SaamaacococcaGOOOGGEORaccoacccsacoococccwOOOOOOK
शब्दार्थ - समुद्दकूलंसि - समुद्र के तट पर, णिउरुंब - समूह, हरियगरेरिजमाणाहरियाली से सुशोभित होते हुए।
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने एक दृष्टान्त द्वारा उत्तर देते हुए कहा - हे गौतम! समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष थे यावत् वे जलपूर्ण मेघों की तरह नीलश्याम आभा लिए हुए थे। वे पत्तों, पुष्पों, फलों से युक्त थे, हरे-भरे थे, बड़े सुहावने एवं शोभायुक्त प्रतीत होते थे।
जया णं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिटुंति। अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा परिसडियपंडुपत्तपुप्फफला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणा मिलायमाणा चिटुंति।
__ शब्दार्थ - दीविच्चगा - समुद्रवर्ती द्वीपों की ओर से आने वाली, ईसिं - हल्की-हल्की, पुरेवाया - पूर्वी वायु, पथ्यवात-वनस्पति के लिए हितकारक वायु, पच्छावाया - पश्चिमी वायु, महावाया - तीव्र वायु, जुण्णा - जीर्ण, झोडा - पत्र रहित, परिसडिय-पंडुपत्तपुप्फ-फला - सडे हुए पीले पत्तों और फलों से युक्त, मिलायमाणा - मुरझाए हुए। . भावार्थ - समुद्रवर्ती द्वीपों से आती हुई धीमी-धीमी पूर्वी एवं पश्चिमी तेज हवा चलती है तब बहुत से दावद्रव संज्ञक वृक्ष पत्र यावत् पुष्प आदि से शोभित होते हुए खड़े रहते हैं। .
परन्तु इस स्थिति में कई दावद्रव वृक्ष जीर्ण, पत्र रहित, सड़े गले पत्र पुष्प फलयुक्त, रूक्ष होते हुए मुरझाए हुए ही रहते हैं।
एवामेव समणाउसो! जे अम्हं णिग्गंथो वा २ जाव पच्चइए समाणे बहूणं समणाणं ४ सम्मं सहइ जाव अहियासेइ बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं णो सम्मं सहइ जाव णो अहियासेइ एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते समणाउसो!
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