Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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४२.
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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उवणय गाहाओ - जह चंदो तह साहू राहुवरोहो जहा तह पमाओ। वण्णाई गुणगणो जह तहा खमाई समण धम्मो॥१॥ पुण्णो वि पइदिणं जह हायंतो सव्वहा ससीणस्से। तह पुण्ण चरित्तोऽवि हु कुसील संसग्गिमाईहिं॥२॥ जणियपमाओ साहू हायंतो पइदिणं खमाईहिं। जायइ णट्टचरित्तो तत्तो दुक्खाइं पावेइ ॥३॥ हीण गुणो वि हु होउं सुहगुरुजोगाइजणिय संवेगो। पुण्णसरूवो जायइ विवड्डमाणो ससहरोव्व॥४॥
॥दसमं अज्झयणं समत्तं॥ शब्थार्थ - राहुवरोहो - राहु द्वारा ग्रसित किया जाना, पमाओ - प्रमाद, ससहरोव्व - चन्द्रमा की तरह।
भावार्थ - यहाँ चन्द्र के रूपक से साधु का वर्णन है। चंद्र जिस तरह राहु द्वारा ग्रसित होता है, उसी प्रकार प्रमाद द्वारा साधु-साधुत्व से तिरोहित होता है॥१॥ ___ पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्रमा भी कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन घटता-घटता अन्त में अमावस्या के दिन सर्वथा विलुप्त हो जाता है। उसी प्रकार परिपूर्ण साधु भी कुशीलजनों के संसर्ग आदि से प्रमाद युक्त हुआ, प्रतिदिन क्षमा आदि गुणों में हीन, हीनतर होता जाता है और अंततः उसका चारित्र नष्ट हो जाता है तथा वह अनेक दुःखों को प्राप्त करता है। २,३॥
जो चारित्र गुण से हीन हो गया है, वह भी उत्तम गुरु आदि के संयोग से संवेग-वैराग्य प्राप्त कर लेता है। वृद्धि प्राप्त करते हुए चंद्र की तरह वह अपने क्षांति-ब्रह्मचर्य आदि स्वरूप में परिपूर्णता पा लेता है।
|| दसवाँ अध्ययन समाप्त॥
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