Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र NaOOGGINGRECEIPRECICIPIECESSERICARRIERICCHEIGRICKRECORKIOKEKIOSKAREEK दुष्प्रेरित, चरणचुओ - आचार से च्युत, दारुणसरूवे - भयानक स्वरूप युक्त, अक्खोहो - अक्षुब्ध-अविचलित, सट्ठाण - अपने स्थान में, घर में।
भावार्थ - जैसी रत्नद्वीप देवी थी, वैसी ही इसलोक में महापाप युक्त अविरति है। जिस प्रकार सार्थवाह वणिक थे, उसी प्रकार सुख चाहने वाले जीव हैं॥१॥
जैसे उन डरे हुए वणिकों ने-माकंदी पुत्रों ने वध स्थान में शूलारोपित पुरुष को देखा, वैसे ही संसार के दुःख से भयभीत लोग धर्मोपदेश देने वाले को देखते हैं॥२॥ _ जैसे उस पुरुष ने देवी को घोर दुःखों का कारण बतलाया और शैलक यक्ष को इससे छुड़ाने वाला कहा, उसी प्रकार अविरति के स्वभाव को जिसने देखा है, वैसा ही धर्मोपदेश भव्य जीवों का सहायक होता है और बतलाया है कि विषय-सांसारिक भोग समस्त दुःखों के कारण बनते हैं। सांसारिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए जितेन्द्र देव प्ररूपित धर्म ही एक मात्र शरण है। वह परमानंदमय निर्वाण का साधन है॥३,४,५,॥ - जिस प्रकार उन माकंदी पुत्रों द्वारा भयानक समुद्र पार उतरने योग्य था, उसी प्रकार जीवों द्वारा यह संसार समुद्र तरणीय है। जैसे उन द्वारा घर जाना उद्दिष्ट था, वैसे ही निर्वाण प्राप्त करना प्राणियों के लिए उद्दिष्ट है॥६॥
देवी द्वारा प्रदर्शित श्रृंगारात्मक चेष्टा रूप उपसर्ग द्वारा मूढमति होकर शैलक की पीठ से विमरक्षित भ्रष्ट हो गया, गिरा दिया गया तथा हजारों हिंसक जीवों से युक्त समुद्र में गिर कर मृत्यु को प्राप्त हुआ उसी प्रकार अविरति से दुष्प्रेरित साधक आचार से व्युत होकर दुःख रूपी हिंसक जानवरों से व्याप्त, भीषण स्वरूप युक्त, संसार सागर में निपतित हो जाता है॥७-८॥
जिनपालित जो देवी के उपसर्ग से क्षुभित नहीं हुआ, अप्रभावित रहा, वह अपने घर पहुँचा और उसने जीवन के सुख भोगे। उसी प्रकार आचार में स्थित जो साधु अविरति से अप्रभावित रहता है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है।
॥ नववां अध्ययन समाप्त॥
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