Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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माकन्दी नामक नववां अध्ययन - देवी का दुष्प्रयास కందించిందించిందించిందించిందిదిందిదిరిదిరిదిరిందిదిలందిందింందింది वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जघन, मुख, हाथ, पैर, नैत्र तथा उसके लावण्य रूप और यौवन की शोभा तथा तीव्र कामौत्सुक्य पूर्ण आलिंगन, बिब्बोक आदि विविध हाव-भाव रूपी विलास, हास-परिहास, कटाक्ष पूर्ण दृष्टि, आह पूर्ण श्वास, लालित्य पूर्ण काम क्रीड़ा, उसकी स्थिति, गति, प्रणय, काम कलह एवं प्रसन्नता पूर्ण भावों को बार-बार याद करने लगा। उसकी बुद्धि मोहविमूढ हो गई। वह काम वशगत होता हुआ अपने पर नियंत्रण नहीं रख सका। वह लज्जा पूर्वक मार्ग में देवी की ओर देखने लगा।
(५७) तए णं जिणरक्खियं समुप्पण्ण कलुणभावं मच्चगलत्थल्लणोल्लियमई अवयक्खंतं तहेव जक्खें (य) उ सेलए जाणिऊण सणियं २ उव्विहइ णियगपिट्ठाहि विगयस(त्थं)द्धे। . .
शब्दार्थ - मच्चु - मृत्यु, गलत्थल्ल - कण्ठ पकड़ना, णोल्लियमई - दुष्प्रेरित मति। . भावार्थ - जिसके मन में देवी के प्रति कारुण्य उत्पन्न हो गया था, मृत्यु द्वारा गला पकड़: कर जिसकी बुद्धि अपने सम्मुख कर ली गई थी, जो रत्नद्वीप देवी की ओर देखने लगा था, शैलक यक्ष ने जब उसे इस स्थिति में देखा तो जिन रक्षित को अपने वचन के प्रति श्रद्धाविहीन देखकर धीरे-धीरे समुद्र में गिरा दिया।
विवेचन - देवी ने जिनपालित और जिनरक्षित को पहले कठोर वचनों से और फिर कोमल, लुभावने वचनों से अपने अनुकूल करने का यत्न किया। कठोर वचन प्रतिकूल उपसर्ग के और कोमल वचन अनुकूल उपसर्ग के द्योतक हैं। कथानक से स्पष्ट है कि मनुष्य प्रतिकूल उपसर्गों को तो प्रायः सरलता से सहन कर लेता है किन्तु अनुकूल उपसर्गों को सहन करना अत्यन्त दुष्कर है। जिनपालित की भांति दृढ़मनस्क साधक दोनों प्रकार के उपसर्गों के उपस्थित होने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पर अचल-अटल रहते हैं, किन्तु अल्पसत्त्व साधक अनुकूल उपसर्गों के आने पर जिनरक्षित की तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। अतएव साधक को अनुकूल उपसर्गों को अतिदुस्सह समझ कर उनसे अधिक सतर्क रहना चाहिए। .. रत्नद्वीप की देवी सम्पूर्ण रूप से विषयान्ध थी। उसके दिल में सार्थवाह पुत्रों के प्रति प्रेम, ममता की भावना नहीं थी, वह उन्हें मात्र वासनातृप्ति का साधन मानती थी। इससे स्पष्ट है कि वैषयिक अनुराग का सर्वस्व मात्र स्वार्थ है। इसमें दया-ममता नहीं होती, अन्यथा वह जिनरक्षित
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