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अपना दर्पणः अपना बिम्ब और चिन्तन-तीनों मन के कार्य हैं और तीनों ही जीवन के लिए आवश्यक हैं। ये अनावश्यकता के बिन्दु पर पहुंच जाते हैं तब मानसिक तनाव बढ़ता है। एकाग्रता की साधना होने पर आवश्यकता शेष रहती है, उनका अनावश्यक प्रयोग समाप्त हो जाता है। भाव
जीवन का पांचवा घटक तत्त्व है भाव । मन अचेतन तत्त्व है। वह स्वयं संचालित नहीं है। उसका संचालक तत्त्व है भाव। मन का संबंध स्थूल शरीर से है। भाव का संबंध सूक्ष्म शरीर से है। स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर है। उसका नाम है तैजस । वह तेजोमय अथवा विद्युन्मय शरीर (Electrical Body) है। उस शरीर के क्षेत्र में भाव का निर्माण होता है और वह मस्तिष्क में प्रतिष्ठित होकर मन का संचालन करता है। आयुर्विज्ञान में भाव विशुद्धि या भाव चिकित्सा का विशिष्ट प्रवेश नहीं है। प्रेक्षा-ध्यान का मूल सूत्र है भावात्मक परिवर्तन-निषेधात्मक भाव समाप्त हो, विधायक भाव की संप्राप्ति
हो।
मानसिक स्वास्थ्य का मूल आधार भावानात्मक स्वास्थ्य है। प्रेक्षाध्यान का आधार-भूत सूत्र है-व्याधि, आधि, उपाधि और समाधि । व्यक्ति समाधि का जीवन जीना चाहता है। समाधि के ये तीन विघ्न हैं-व्याधि (शारीरिक रोग), आधि (मानसिक रोग) और उपाधि (भावनात्मक रोग)-भावनात्मक रोग मानसिक रोग का हेतु है और मानसिक रोग अनेक शारीरिक रोगों का हेतु है। प्रेक्षाध्यान की पद्धति में सर्वप्रथम भावनात्मक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाता है। भाव स्वस्थ है तो मन स्वस्थ होगा, शरीर भी स्वस्थ होगा। चैतन्य केन्द्र
और लेश्या ध्यान के प्रयोग मुख्यतः भावात्मक स्वास्थ्य के प्रयोग हैं। कर्म
जीवन का छठा घटक तत्त्व है कर्म। जीवन में जो कुछ होता है, वह आकस्मिक, अहेतुक या परिस्थितिजनित ही नहीं होता। कुछ घटनाएं परिस्थिति
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