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आनन्दघन का रहस्यवाद
जैन रहस्यवाद दो तत्त्वों पर आधारित है-आत्मा और परमात्मा । आत्मा में बहिरात्मा और अन्तरात्मा का समावेश होता है। रहस्यवाद के मुल में आत्मा और परमात्मा ये दो ही अवस्थाएँ काम करती हैं।
तत्त्वतः आत्मा और परमात्मा भी अलग-अलग नहीं है; दोनों एक ही है, अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। जिसे 'शुद्धात्मा' कहा जाता है। संसार की प्रत्येक आत्मा कर्ममल से रहित होने पर परमात्मा बन जाती है। इस प्रकार जैनधर्म आत्मा और परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करता है। इसी दृष्टि से जैनधर्म में रहस्यवाद प्राचीन काल से पाया जाता है।
जैन परम्परा में सर्वप्रथम रहस्यवादी के रूप में भगवान ऋषभदेव का नाम लिया जा सकता है जिनका उल्लेख यजुर्वेद में है। उसमें ऋषभदेव और अजितनाथ को गूढ़वादी कहा गया है।' श्रीमद्भागवत् में भी जैन परम्परा समर्थित प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के सम्बन्ध में उनके चरित और साधना-पद्धति का जो विस्तृत विवेचन मिलता है उससे यह असन्दिग्धरूप से प्रमाणित हो जाता है कि ऋषभदेव विश्व के उच्चकोटि के रहस्यदर्शियों में से एक थे।
'परमात्मा-प्रकाश' की भूमिका में डा० ए० एन० उपाध्ये ने उल्लेख किया है कि साधनात्मक दृष्टि से जैन तीर्थकर ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इत्यादि विश्व के महान् रहस्यदर्शियों में
१. यजुर्वेद, उद्धृत् -'हिन्दी जैनभक्ति काव्य और कवि', डा० प्रेम
सागर जैन, पृ० ४७६ । २. भरतं धरणि पालनायाभिषिच्य स्वयं भवन एवोवरितशरीरमात्र
परिग्रह उन्मत्त इव गमन परिधानः प्रकीर्ण केश आत्मन्यारोपिता हवनीयो ब्रह्मावर्तात्प्रवव्राज। जबान्मूकबधिर पियानोन्मादकवदवधूत वेषोऽभिभाष्यमाणोऽपि जनानां गृहीत मौनव्रतस्तुष्णीं बभूव ।
श्रीमद्भागवत्, गीताप्रेस, पंचम स्कन्ध, पंचम अ०, पृ० ५६३ । 3. To take a practical view the Jain Tirthankaras like
Risabhadeva, Neminath, Parsvanath and Mahavira etc. have been some of the greatest Mystics of the world. A. N. Upadhey, Introduction of Paramatma Prakash, p. 43.