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आनन्दघन का रहस्यवाद
है, सम्यक्ज्ञान का द्वितीय और सम्यक् चारित्र का तृतीय स्थान है वस्तुतः दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय की साधना के द्वारा ही आत्मा की उत्तरोत्तर शुद्धि होती है । दर्शन-ज्ञान और चारित्र को क्रमशः आत्म-श्रद्धा, आत्म-ज्ञान और स्व-स्वरूप में रमणता भी कहा जा सकता है ।
सम्यग्दर्शन
जैन- दृष्टि से साधना का मूल सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन से ही आध्यात्मिक विकास आरम्भ होता है । इसीलिए जैन - परम्परा में साधना की प्रथम भूमिका सम्यग्दर्शन मानी गई है । इस सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि 'सम्यग्दर्शन ( सम्यक् श्रद्धा) मोक्ष की पहली सीढ़ी है । जैन- शास्त्रों में सम्यग्दर्शन की चर्चा अनेक रूपों में परिलक्षित होती है ।
सम्यग्दर्शन के विविध रूप
सामान्यतया जैन - परम्परा में 'दर्शन' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है ।
(अ) दृष्टिपरक अर्थ में
'जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि' यह कहावत प्रसिद्ध है । दृष्टि दो है -- ( १ ) सन्यक्-दृष्टि और (२) मिथ्या - दृष्टि । सम्यक् दृष्टि से अभिप्राय हैविशुद्ध-दृष्टि या निर्मल-दृष्टि तथा मिध्यादृष्टि का अर्थ है - मोह-दृष्टि | यहाँ सम्यक् —'दर्शन' शब्द दृष्टिपरक अर्थ में व्यवहृत हुआ है ।
( ब ) तत्त्व श्रद्धापरक अर्थ में
जैनागम में 'सम्यग्दर्शन' शब्द का प्रयोग तत्त्वार्थ श्रद्धान के अर्थ में भी हुआ है ।
१. सम्मदंसणं पढमं, सम्मं नाणं बिइज्जियं ।
तइयं च सम्मचारित, एगभूयमिमं तिगं ॥ - महानिशीथ, गाथा २ ।
२. सोवाणं पढम मोक्खस्स ।
— दर्शन पाहुड, २१ |