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आनन्दघन का रहस्यवाद हैं। यही बात प्रकारान्तर से उपाध्याय यशोविजय ने भी कही है। इस सम्बन्ध में उनका कथन है 'समता के बिना सारी क्रियाएँ ऊसर भूमि में वपन किए बीज के समान निष्फल है।' इसी की प्रतिध्वनि उपाध्याय विनय विजय की निम्नांकित पंक्तियों में भी द्रष्टव्य है :
समता विण जे अनुसरे, प्राणी पुन्यनां काम ।
छार ऊपर ते लीपंj, ज्यों झाखर चित्राम ॥२ सम्यग्दर्शन का ही अपर नाम शुद्धा श्रद्धा है । शुद्ध श्रद्धा आने पर अन्तदृष्टि खुल जाती है, आत्म-अनात्म तत्त्वों का विवेक हो जाता है । जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में इसे 'सम्यक्त्व-प्राप्ति' कहते हैं और रहस्यवाद की अवस्थाओं में इसे आत्म-जागृति की अवस्था कहा गया है।
सम्यक् ज्ञान
जैन-परम्परा में साधना के क्षेत्र में सम्यक्ज्ञान का वही महत्त्व है, जैसा सम्यग्दर्शन का । सम्यग्दर्शन के बाद साधक की दूसरी साधना हैसम्यक्ज्ञान की प्राप्ति ।
सम्यक्ज्ञान और सम्यग्दर्शन का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। दोनों एक दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं। दर्शन का समावेश ज्ञान के अन्तर्गत्
और तप का समावेश चारित्र के अन्तर्गत् माना गया है। इस दृष्टि से कहीं-कहीं 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' सूत्र के अनुसार ज्ञान और क्रिया को मोक्ष का साधन कहा है। सूत्र कृतांग में कहा है कि ज्ञान और कर्म (क्रिया) से ही मोक्ष मिलता है।
ज्ञान के सम्बन्ध में जैनदर्शन की यह अवधारणा है कि ज्ञान आत्मा का मौलिक गुण है। वह न्याय-वैशेषिक की भांति उसे आगन्तुक गुण
१. अध्यात्मसार, अधिकार ९ । २. उद्धृत-आनन्दघन चौबीसी, पृ० ३००
सम्पा०-ले० मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया। ३. आहंसु विज्जा चरणं परमोक्खं ।
-सूत्रकृतांग, १।१२।११।