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आनन्दघन का रहस्यवाद
तरह 'प्रेम के प्याले' की चर्चा कबीर और जायसी में भी उपलब्ध होती है। जायसी के प्याले में बेहोशी अधिक है, जबकि आनन्दघन के प्रेमप्याले में मस्ती अधिक है। उसमें प्रेमी का जागरण है। आनन्दानुभव रूप प्याले को पीकर प्रेमी-भक्त बेहोश या मूच्छित नहीं होता, अपितु वह जागृत रहता है।
आत्म-प्रेमी आनन्दघन ने 'प्रेम के प्याले' खूब पिये हैं और अधिकांश पदों में इसका निर्देश किया है। आनन्दघनरूपी समता प्रिया ने प्रेम का प्याला पी-पीकर ही अपने विरह के सब दिन व्यतीत किए हैं।२ किन्तु उनका यह प्रेम सस्ती भावुकता नहीं है और न बाजारू सौदा है। उनके अनुसार यह प्रेम का सौदा (व्यापार) बड़ा ही अगम्य (रहस्यमय) है। इसे कोई विरला पुरुष ही परीक्षापूर्वक समझ पाता है। जो हृदय लेता है और देता है, वही इसके रहस्य-मर्म को जान पाता है। दूसरे शब्दों में, अपने निजी अनुभव से ही इसकी जानकारी हो पाती है। जो इसमें रहता है, उसी को इसका रहस्य विदित होता है। समता और चेतन के प्रेम के बीच किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं होती । इस सम्बन्ध में आनन्दघन की ये पंक्तियाँ मननीय हैं :
रिसानी आप मनावो रे, बीच बसोठ न फेर। सौदा अगम प्रेम का रे, परिख न बुझै कोय ।
लै दै वाही गम पडै प्यारे, और दलाल न होय ॥३ आनन्दघन के उक्त कथन का सार यह है कि यह प्रेम समता और आत्मा का है। इसमें किसी 'पर' के निमित्त की आवश्यकता नहीं, क्योंकि समता और आत्मा तत्त्वतः पृथक्-पृथक् सत्ता नहीं है, अपितु समता आत्मा का ही स्व-स्वरूप है। अतः यह प्रेम स्वाश्रित है, आत्मा का आत्मा के प्रति शुद्ध प्रेम है। १. जोगी दृष्टि सो लीना
नैन रोपि नैनाहिं जिउ दीन्हा। जाहि मद चढ़ा परातेहि पाले,
सुधि न रही ओहि एक प्याले ॥
—जायसी ग्रन्थावली, वसन्त खण्ड, १२ वीं चौपाई, पृ० ८४ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १८ । ३. वही, पद ३६ ।