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आनन्दघन का रहस्यवाद
और दूसरा अशुद्ध मन ।' शुद्ध मन विषय-वासना (काम) से रहित होता है और अशुद्ध मन काम से सना हुआ होता है। परमात्म-मिलन शुद्ध मन के द्वारा ही सम्भव है। इस माध्यामिक-मिलन में वह तेज होता है जो मलिन वासनाओं को भस्म कर देता है और जीवन के चरम साध्य आनन्द की उपलब्धि करा देता है । इस प्रकार, आध्यात्मिक-मिलन अलौकिक होता है।
रहस्यवादी सन्त आनन्दघन ने विरह और मिलन दोनों के गीत गाए हैं। यद्यपि उनमें विरहानुभूति का स्वर ही अधिक गूंजता है, तथापि मिलन की अवस्था के भी कुछ चित्र पाये जाते हैं। जिस प्रकार आनन्दघन रूप समता विरहिणी ने अपने चेतन-प्रिय के विरह में अश्रुगीत बहाए हैं, उसी प्रकार उसने मिलन के हर्षगीत भी गाए हैं। यह बात अलग है कि मिलन के इन चित्रों में उतना तीव्र हर्षोन्माद दृष्टिगत नहीं होता जितनी विरह-वेदना की तड़पन । आनन्दघन के काव्य में विरह की अपेक्षा मिलन का चित्रण अत्यल्प है, तथापि यह चित्रण भी उन्होंने रूपकों के सहारे बड़े ही सुन्दर एवं भावपूर्ण ढंग से अभिव्यंजित किया है। यह कहना कदाचित् अधिक उपयुक्त होगा कि आनन्दघन का रहस्यवाद वास्तव में चेतन-चेतना के मिलन की भावात्मक अनुभूति है।
रहस्यवादी साधक जब विभिन्न रहस्यवादी अवस्थाओं को पार करता हुआ माया-ममता आदि समस्त विकारों-विभावों पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब उसका शुद्धात्म रूप प्रियतम से मिलन होता है । यह नितान्त सत्य है कि विरहावस्था का अन्त होने पर ही प्रिय-मिलन की अवस्था आती है। निम्नांकित पद में चेतन और चेतना की विरहावस्था के अन्त और मिलन की अवस्था का वर्णन चकवा-चकवी के रूपक के द्वारा मनोरम ढंग से किया गया है । आनन्दघन का कथन है
मेरे घट ज्ञान भान भयो भोर ।
चेतन चकवा चेतना चकवी, भागौ विरह को सौर ॥१॥ १. मनो हि द्विविधं प्रोक्तं, शुद्धं चाशुद्धमेव च । अशुद्धं काम संपर्काच्छुद्धं काम विवर्जितम् ।
-मैत्रायण्युपनिषत्, ६॥३४॥