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आनन्दधन का रहस्यवाद
बहिरातम तजि अन्तर आतमा, रूप थई थिर भाव सुज्ञानी ।
परमातमनु आतम भाववू, आतम अरपण दाव सुज्ञानी ।' बहिरात्म भाव को त्याग कर अन्तरात्म स्वरूप में स्थित होकर परमात्म स्वरूप का चिन्तन करना ही आत्म-अर्पण का श्रेष्ठ उपाय है। उनके अनुसार आत्मार्पण की अवस्था (तत्त्व) पर चिन्तन करने से साधक की बुद्धि निर्मल हो जाती है, समस्त संशय दूर हो जाते हैं और आत्मोपलब्धि रूपी संपदा प्राप्त हो जाती है, जो आनन्दघन रूप रस से युक्त है :
आतम अर्पण वस्तु विचारतां, भरम टलै मति दोष सुज्ञानी ।
परम पदारथ सम्पति संपजै, आनन्दघन रस पोष सुज्ञानी ॥ इस आत्म-अर्पण की अवस्था के सन्दर्भ में उन्होंने ऋषभजिन स्तवन में आत्म-अर्पण करने के पूर्व साधक को निष्कपट होने की चेतावनी भी दी है । वे कहते हैं
कपट रहित थई आतम अर्पणा, आनन्दधन पद रेह । ३ साधक को 'त्म-अर्पण करने के पहले निष्कपट होना आवश्यक है, क्योंकि जब तक वह निष्कपट होकर आत्म-अर्पण नहीं करता, तब तक वह केवल दिखावा मात्र होगा। जहाँ कपट है, द्वैतभाव है, वहाँ परमात्मा के साथ अन्तरात्मा की एक-रूपता नहीं हो सकती। इसीलिए आनन्दघन ने साधक के निष्कपट होने पर बल दिया है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि आनन्दघन की आत्म-समर्पण या आत्मअर्पण की अवस्था में किसी प्रकार के दम्भ, छल-प्रपंच या माया-जाल आदि को स्थान नहीं है। निष्काम और निःस्वार्थ भाव से अन्तरात्मा का परमात्मा में अर्पित हो जाना-लीन हो जाना ही सच्ची आत्म-अर्पणता है। जब साधक अपने आत्म-तत्त्व से भिन्न-परभाव जिन्हें अभी तक वह अपना मानता आया है, उनका सर्वतोभावेन व्युत्सर्ग-अन्तःकरण से त्याग कर
देता है तभी उसका आत्मार्पण सच्चा कहा जा सकता है। ऐसे समर्पणकर्ता बहिरात्म भाव से सर्वथा मुक्त होकर अन्तरात्म-दशा में ही स्थिर
१ आनन्दघन ग्रन्थावली, सुमतिजिन स्तवन । २. वही। ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, ऋषभजिन स्तवन ।