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आनन्दघन का रहस्यवाद
जाता है और मात्र शुद्ध आत्म-तत्त्व रह जाता है, जो दर्पण की तरह निर्मल और निर्विकार है (उसका नाम चाहे जो हो ) ।
यहां यह भ्रान्ति होना स्वाभाविक है कि जहाँ आत्मा परमात्मा के चरणों में सर्वतोभावेन आत्म-नमर्पण कर देता है, वहां उसके पृ बने रहने का तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । किन्तु जैन दर्शन में आत्मा से पृथक् परमात्मा नाम की कोई सत्ता मान्य नहीं होने से शुद्धात्मा प्रति यह आत्मसमर्पण है ।
इसी सन्दर्भ में दूसरा प्रश्न यह उठाया जा सकता है कि एक ओर जहां जैनदर्शन परमात्मा की पृथक् सत्ता को अस्वीकार करता है, वहीं दूसरी ओर, आनन्दघन परमात्मा के ही चरणों में आत्म-समर्पण करने पर बल देते हैं । यह विपर्यास क्यों ?
आध्यात्मिक साधक के लिए आत्म-समर्पण अर्थात् निम्नात्मा का विसर्जन करना तो आवश्यक होता है किन्तु मूल प्रश्न यह है कि वह किसके समक्ष आत्म-समर्पण करे ? इसी प्रश्न का समाधान करते हुए आनन्दघन कहते हैं :
सुमति चरण कँज आतम अर्पण, दर्पण जिम अविकार सुज्ञानी ।'
हे आत्मज्ञानी ! दर्पण की तरह निर्मल- निर्विकार ऐसे सुमति जिन के चरणों में आत्म-अर्पण करो । यहाँ आनन्दघन का 'परमात्मा' से मतलब किसी व्यक्ति विशेष से नहीं है, अपितु आत्मा की ही एक शुद्ध अवस्था विशेष से है । परमात्मा के स्वरूप का चित्रण करते हुए वे कहते हैं कि परमात्मा वह है जो ज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण, संसार की समग्र उपाधियों से रहित, अतीन्द्रिय और अनन्त गुण समूह से समन्वित हो । ऐसे अतीन्द्रिय परमात्मा के चरणों में आनन्दघन ने आत्म- अर्पण करने का निर्देश किया है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट ध्वनित होता है कि आनन्दघन के दर्शन में परमात्मा नामक कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । आत्मा ही पर
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, सुमतिजिन स्तवन ।
२.
वही ।