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आनन्दघन का रहस्यवाद
परमात्मा से साक्षात् भेंट अर्थात् आत्मोपलब्धि होने पर आत्मा परमात्म-स्वरूप हो जाता है। इस अवस्था को आनन्दधन ने निम्नलिखित शब्दों में प्रकट किया है
अहो अहो हुं मुजने कहूँ, नमो मुज नमो मुज रे।
अमित फल दान दातारनी, जेथी भेंट थई तुज रे ॥' परमात्मा के दर्शन को पाकर मैं धन्य हो उठा। मेरे जन्म-जन्म के बन्धन कट गए, तब मैं अपने आपको ही बार-बार नमन करता हूँ। अभिप्राय यह है कि जब साधक को परमात्म-स्वरूप की वास्तविक अनुभूति होती है, आत्मदेव का दर्शन होता है, तब आत्मा आत्मा को ही नमन करता है, क्योंकि उस अवस्था में आत्मा और परमात्मा दोनों अभिन्न रूप में प्रतिभासित होते हैं। इसी दृष्टि से आनन्दघन ने अपनी आत्मा को प्रफुल्लित होकर साधुवाद दिया है, नमन किया है, भाग्यशाली एवं कृतकृत्य माना है।
वस्तुतः आत्मोपलब्धि वह दशा है जब साध्य और साधक, भक्त और भगवान् के सारे द्वैत समाप्त हो जाते हैं। आत्मा का ही परमात्म-स्वरूप में बोध होता है, आस्वाद होता है, उस दशा में आत्मा और परमात्मा में कोई दूरी नहीं रह जाती है। जो आराधक था, वही आराध्य बन जाता है। कहा भो गया है-:..::.:.:'। इस आत्मोपलब्धि का अपरिमित फल मोक्ष है, संसार-चक्र से मुक्ति है, जिसे पाकर कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता । उक्त पंक्तियों में आनन्दघन ने परमात्मा के साथ अद्वैत की अनुभूति करके हो परम शान्ति के अधिष्ठान स्वात्मा को नमस्कार किया है। भक्ति के माध्यम से उक्त स्तवनों में परमात्म-साक्षाकार का कितना अनुभूतिमय चित्र उपस्थित किया है। इतना ही नहीं, उनका 'परचा' (परिचय) आनन्दघन रूप परमात्म-स्वरूप से भी हुआ था। इस बात को उन्होंने बड़े ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है :
साधो भाई अपना रूप जब देखा। करता कौन करनी फुनि कैसी, कौन मांगेगो लेखा ॥
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, शान्तिजिन स्तवन ।