________________
३२४
आनन्दघन का रहस्यवाद
समता (चेतना) का चेतन से मिलाप करानेवाले तत्त्व अनुभव और विवेक हैं। अनुभव और विवेक चेतना का चेतन-प्रियतम से मिलन कराकर तभी दम लेते हैं। देखिए :
बंधु विवेकै पिवडौ बूझव्यो, वार्यो पर घर संग ।
हेजै मिलीया चेतन चेतना, वरत्यो परम सुरंग ॥' विवेक बन्धु ने चेतन को समझाया और उसे ममता रूपी पर घर में जाने से रोका। परिणाम यह हुआ कि चेतन और चेतना सहज ही मिल गए, जिससे परमानन्द रूप प्रिय के साथ एक रंग प्राप्त हो गया अर्थात् चेतन और चेतना एक रूप हो गए। इसी तरह एक अन्य पद में अनुभव ने भी चेतन को समझाया। तब चेतनराज ममता से मुक्त होकर समता रूपी निज घर में आ गए। उनके आगमन से मानो वसन्त का आगमन हो गया।
किन्तु प्रियतम का आगमन होने पर भी चेतना का उससे साक्षात्कार नहीं होता है, क्योंकि उसका कर्म रूपी चूंघट दोनों के प्रत्यक्ष-मिलन में बाधक है । अतः सखी उसे कर्म-चूंघट को हटाने का संकेत करती हुई कहती है
आनन्दघन दरस पियासी, खोल घंघट मुख जोवे ॥३ अन्त में कर्म रूपी चूंघट खुल जाता है और प्रियतमा प्रियतम से सुहाग प्राप्त करती है। वह आनन्द विभोर होकर कह उठती है :
आज सुहागिन नारी, अवधू,
मेरे नाथ आप सुध लीनी, कीनी निज अंग चारी ॥ हे आत्मन् ! मेरे नाथ ने आज स्वयं अनुग्रह करके मेरी सुध ली है और मुझे अपनी सहचरी बनाया है। इसलिए नारी आज सौभाग्यवती हुई। लम्बी प्रतीक्षा के बाद आए नाथ को प्रसन्न करने हेतु वह साधना रूपी विविध भांति के शृङ्गार करती है । उसने सद्गुणों के प्रम की और श्रद्धा
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४१ । २. वही, पद ७८ । ३. वही, पद ८५ ॥ ४. वही, पद ८६ ।