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आनन्दघन का रहस्यवाद
मानो विरहिणी की हँसी कर रही है । इससे उसने रो-रोकर अपने आसपास मानो भाद्रपद में होनेवाले कीचड़ की भाँति कीचड़ कर लिया है । इतना ही नहीं, प्रत्युत उसकी चित्तरूपी चक्की चारों तरफ घूम रही है जिसने उसके प्राणों को पीस कर मैदा बना दिया है । ऐसी स्थिति में वह अपने चेतनरूप प्रियतम से अनुरोध करती है कि हे प्रभो ! अब तुम इस अबला के प्रति अधिक कठोर मत बनो और शीघ्र आकर मुझे दर्शन दो
दुखियारी निस दिन रहूँ रे, फिरूँ सब सुधि बुधि खोइ । तन की मन की कवन लहै प्यारे, किसहि दिखावुं रोइ ॥ निसि अँधियारी मोहि हँसैरे, तारे दाँत दिखाय । भादु कादुं मई कीयउ प्यारे, अंसुवन धार बहाय ॥ चित चाकी चिह्न दिसि फिरै रे, प्रान मैदो करै पीस । अबला सई जोरावरी प्यारे, एतो न कीजै ईस || '
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विरहिणी का अन्तस् विरह व्यथा के क्रम को आगे भी जारी रखता है । आनन्दघन रूप समता-विरहिणी को विरह व्यथारूपी भाद्रपद की घनघोर रात्रि एक कटार के समान प्रतीत होती है जो उसकी छाती को क्षण-क्षण में विदीर्ण कर रही है । किन्तु कभी-कभी प्रियतम की सुन्दर छवि को देखकर उसका हृदय प्रेम से विभोर हो उठता है और मुख से 'पियापिया' की ध्वनि निकल पड़ती है । पपीहा भी 'पिउ-पिउ' करने लगा है और उसकी यह पिउ-पिउ की मधुर ध्वनि समता-विरहिणी को प्रिय की स्मृति और अधिक ताजा करा रही है । इसीलिए कवियों ने उसे वियोगिनी के प्राण हरण करने में प्रवीण कहा है। एक रात्रि को प्रियतम के ध्यान में समता-विरहिणी ऐसी तल्लीन हुई कि वह प्रियतम के नाम की स्मृति ही बिसर गई । चतुर चातक ने पिउ-पिउ की ध्वनि से उसे प्रियतम की स्मृति कराई । इसी तरह एक बार किसी ने 'पिउ-पिउ' का आलाप किया किन्तु उस समय विरहिणी प्रिय के ध्यान में मग्न थी, ध्यान टूटने पर उसे विदित हुआ कि पपीहे ने ही उसे ध्यानमग्न देखकर 'पिउपिउ' की तान छेड़ी। इससे वह अपने प्रिय के स्मरण में विशेष प्रवृत्त हुई और प्रिय मिलन के लिए उसकी उत्सुकता अत्यधिक बढ़ गई
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३० ।