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आनन्दघन का रहस्यवाद लेती है। यद्यपि यह निर्लज्ज है तथापि इसमें वह मोहक जादू है जिसमें अनन्त गुणों का भण्डार चेतन भी मोहित हो जाता है । आनन्दघन ने यथार्थ ही कहा है
कहा निगोरी मोहनी मोहक लाल गंवार ।' यद्यपि चेतन माया पर मोहित हो गया है, किन्तु यह माया-ममता आखिर कहाँ से आई है और किस देश की रहनेवाली है ? इसका तो उसे पता ही नहीं है। वास्तव में भेड़ के समान यह मोहिनी माया संसार के पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाली तथा अनिष्टकारी है। यह अमंगलकारी माया जिस घर में भी प्रवेश करती है, वहाँ अनेकानेक विपदायें खड़ी कर देती है। साथ ही, यह अत्यन्त लज्जा दिलाने का कारण होती है। अतः इससे एक कौड़ी जितना भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
जनदर्शन में माया का सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है अर्थात् माया मोहनीय कर्म का ही एक भेद है। आठ कर्मों से मोहनीय कर्म प्रबलतम है। मोह के कारण ही चेतन पर भावों में भटक रहा है। काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, राग-द्वेष, तृष्णा, माया-ममना आदि मोह के ही विभिन्न रूप हैं। सामान्यतया मोह, माया और ममता पर्यायवाची अर्थ में ही प्रयुक्त होते हैं। सन्त आनन्दघन ने मोहनीय कर्म को 'मोहिनी' स्त्री का रूपक देकर उसके परिवार का सुन्दर चित्र खींचा है । मोहिनी की मिथ्या नामक कन्या है, क्रोध-मान उसके पुत्र हैं। माया का लोभ के साथ पाणिग्रहण हुआ है। अतः वह मोहिनी का जमाई है। इस प्रकार, इस मोहिनी का बहुत लम्बा-चौड़ा परिवार है।
मोहिनी माया के इस प्रकार के और भी अनेक सुन्दर चित्र आनन्दघन ने खींचे हैं। यही मोहिनी माया आनन्दधन की रहस्यानुभूति में
१. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ३९ । २. आइ कहां ते माया ममता, जानु न कहा की वासी ।
रीझि परै वाकै संग चेतन, तुम्ह क्युं रहे उदासी ॥ वरजो न जाइ एकंत कंत कु, लोक में होवत हांसी ॥
-वही, पद ४३ । ३. वही, पद ४५ । ४. वही, पद ३९ ।