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आनन्दघन का रहस्यवाद ममता-माया के अतिरिक्त प्रिय-मिलन में बाधक कुबुद्धि, कुमति, आशा, तृष्णा आदि वैभाविक भावों का भी वर्णन आनन्दघन के पदों में हुआ है। उनके अनुसार मूलतः चेतन और समता के बीच वियोग-विरत करानेवाला 'कुभाव'' यानी विकृत भाव है, जो मोहिनी माया-ममता आदि आत्मा की वैभाविक अवस्था है।
परमात्म-दर्शन में बाधक घाती कर्म-पर्वत __आनन्दघन को अन्तरात्म-चेतना परमात्म-दर्शन के लिए अत्यधिक उत्कण्ठित है, किन्तु बीच में अनेक विघ्न-बाधाएँ खड़ी हो जाती हैं। परम रहस्य से साक्षात्कार करने का मार्ग बड़ा कण्टकाकीर्ण है, उसमें अनेक बाधाएँ आती हैं। चूंकि मानव सांसारिक जीव है, अतः परमात्मा के यथार्थ दर्शन में घाती कर्म रूपी पर्वत बाधक हो रहे हैं । इसीलिए आनन्दघन के अन्तर का स्वर फूट पड़ा
घाती डूंगर आडा अति घणा, तुझ दरसण जगनाथ ।
धीठाई करि मारग संचरूं, सैंगू कोइ न साथ ॥२. हे जगन्नाथ ! आपके दर्शन में विघ्नकारक घाती कर्मरूपी अनेक पहाड़ खड़े हैं। इसलिए मैं आपके दर्शन नहीं कर पा रहा हूँ। साहस करके कदाचित् आपके दर्शन के पथ पर चल पडू तो साथ में कोई पथ-प्रदर्शक भी नहीं है। आनन्दघन ने इसके अतिरिक्त परमात्म-दर्शन में अन्य कठिनाइयाँ भी बतलाई हैं । जैसे
१. मताग्रह या दुराग्रह, २. तर्कवाद, ३. सद्गुरु की दुर्लभता, ४. पथ-प्रदर्शक का अभाव
५. सहयोगी का अभाव । १. विरह कु भावै सो मुझ कीया, खबर न पावू धिग मेरा जीया । हदीया देवू बतावै कोई पीया, आवै आनन्दघन करू घर दीया ॥
--आनन्दधन ग्रन्थावली, पद १९ । आनन्दधन ग्रन्थावली. अभिनन्दनजिन स्तवन । ३. वही।
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