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आनन्दघन का रहस्यवाद
जैसा किसी दूसरे का रूप नहीं है । आपका कोई उपमेय ही नहीं है। उसकी आँखें तृप्ति का अनुभव नहीं करती और ये नेत्र जब अपने प्रिय को नहीं देख पाते हैं तो उसके प्रतीक्षापथ पर बिछे रहते हैं। इस सम्बन्ध में आनन्दघन रूप समता विरहिणी का कथन है- 'मार्ग को निहारतेनिहारते आँखें स्थिर हो गईं', जैसे कि योगी समाधि में और मुनि ध्यान में होता है । वियोग की बात किससे कही जाए। मन को तो प्रिय का मुख देखने पर ही शान्ति हो सकती है
पंथ निहारत लोअने, टग लागी अडोला। जोगी सुरती समाधि में, मानो ध्यान झकोला ।। कौन सुणे किसकुं कहूं, किसे मांडु खोला।
तेरे मुख दी, टलै, मेरे मन का झोला ॥२ इस प्रकार प्रियतम की प्रतीक्षा में पथ निहारते-निहारते नेत्र स्थिर हो चुके हैं। अब विरहिणी को मार्ग भी दिखाई नहीं देता। किन्तु यदि प्रियतम करुणा रूपी चाँदनी को फैलाए तो वह प्रिय के मुखचन्द्र को देख सकती है
निसि अंधियारी घन घटारे, पाउं न वाट के फंद ।
करुण कर तो निरवहुं रे, देखु तुझ मुखचन्द ॥ साथ ही वह आनन्द समूह रूप प्रभु को शीघ्र आकर उससे मिलने के लिए भी निवेदन करती है
आनन्दघन प्रभु वेगि मिलो प्यारे, नहिं तो गंग तरंग बहूं री ॥४ हे आनन्दघन प्रभु ! शीघ्र आकर मिलो, अन्यथा मैं गंगा की तरंग में बह जाऊंगी। विरहिणी को प्रिय-विरह की मर्मान्तक वेदना के कारण मृत्यु १. यः शान्तराग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं,
निर्मापितरित्र्यभुवनैक-ललामभूत तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ।।
-भक्तामरस्तोत्र, १२ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३१ । ३. वही, पद ३६ । ४. वही, पद १४ ।