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आनन्दघन का रहस्यवाद सुन्दर फल मिलता है। यही बात परमान्म-दर्शन के सम्बन्ध में भी पर्णरूपेण चरितार्थ होती है। स्वभाव रमण में पुरुषार्थ करते-करते जिस समय आनन-गति इतनी अधिक बढ़ जाती है कि दिव्यदर्शन (आत्मप्रत्यक्ष) होते देर नहीं लगती, उसी समय को काल-लब्धि (समय का परिपाक) कहा जाता है । अतः आनन्दघन ने काल-लब्धि को ही परमात्मदर्शन की आशा का अन्तिम आधार मानकर उसी के सहारे जीवन जीने तथा तब तक प्रतीक्षारत रहने की बात अभिव्यक्त की है।
यहाँ सहज प्रश्न होता है कि आनन्दघन ने 'आशा औरन की क्या कीजै' पद में तो आशा की उपेक्षा की है, जबकि उनके अन्य पदों में सर्वत्र आशावाद का स्वर गूंज रहा है ? उक्त पंक्तियों में तो स्पष्ट रूप से उन्होंने आशा को बड़ा आधार माना है। तथ्यात्मक बात यह है कि 'आशा औरन की क्या कीजै' पद की आशा में और अन्य पदों में वर्णित आशा में आकाशपाताल का अन्तर है। पहली आशा पराई है। उसमें भौतिक पदार्थों या विषयों को पाने की लालसा है। इसीलिए आनन्दघन ने स्पष्ट रूप से ऐसी आशा पर जीनेवालों को 'पूँछ हिलानेवाले कुत्ते' की उपमा दी है। यही नहीं, वह आशा परपदार्थों की दासी है। और इस आशा का आधार काल-लब्धि है । इसमें किसी से याचना नहीं की गई है और न परपदार्थों को प्राप्त करने की यह आशा है। यह तो आत्मा का अपने ही आत्मस्वभाव में पुरुषार्थ करके काल-लब्धि प्राप्त होने पर परमात्म-दर्शन की आशा है।
इससे स्पष्ट होता है कि 'आशा औरन की क्या कीजै' पद में स्पष्टतः आशादासी के दास की बात कही गयी है, और उसमें आशादासी पर विजय प्राप्त करने का निर्देश किया गया है। अन्तरात्म-चेतना को इस प्रकार की आशा के अवलम्बन के अतिरिक्त कोई चारा ही नहीं है । इसीलिए आनन्दघन कहते हैं कि इसी आशा के आधार पर मेरे जैसा साधक जीवन जी रहा है। वास्तव में साधक के जीने का आधार भौतिक न होकर आध्यात्मिक होता है, क्योंकि साधक को जब तक पूर्ण-शुद्ध आत्म-दवा की उपलब्धि नहीं हो जाती, तब तक उस काल को वह आत्मशक्ति उपलब्ध करने में बिताता है। वह स्वभाव रमण में पुरुषार्थ करते-करते ही अपना जीवन पूर्ण करता है । यही कारण है कि आनन्दघन